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ॐ ३५४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
प्रवृत्त हो, इसके लिए प्रचार-प्रसार करना, यम, नियम, संयम, तप, त्याग, प्रत्याख्यान आदि के लिए प्रेरणा करना चारित्रविनय है। सामायिक आदि पाँच प्रकार के चारित्रों में से किसी एक का भी पालन करने वाले चारित्र साधकों का विनय करना, इनकी श्रद्धा-भक्ति, बहुमान, आदर देना, नमन करना चारित्रविनय है।
(४) मनोविनय का अर्थ है मन पर अनुशासन तथा अंकुश रखना। इसके दो भेद हैं-प्रशस्त मनविनय और अप्रशस्त मनविनय। अप्रशस्त मनोविनय १२ प्रकार का है-(१) सावद्य (सदोष), (२) सक्रिय (अशुभ क्रियाओं से युक्त), (३) सकर्कश (कठोर), (४) कटुक (स्व-पर के लिए अनिष्टकर), (५) निष्ठुर (निर्दयतायुक्त), (६) परुष (स्नेहरहित = कठोर), (७) आस्रवकारी (हिंसादि अशुभ आस्रव से युक्त), (८) छेदकारी (अंग काट देने की दुर्भावना से युक्त), (९) भेदकारी (नाक, कान आदि भेदन करने की दुर्भावना से युक्त), (१०) परितापनाकारी (दूसरों को संताप देने का मन), (११) उपद्रवकारी (प्राणवियोग, धनादि अपहरण आदि उपद्रवों के चिन्तन से युक्त), तथा (१२) भूतोपघातकारी (प्राणियों का विनाश करने के चिन्तन से युक्त)। इन बारह प्रकार के अप्रशस्त (दुष्ट = खराब) मन की . प्रवृत्ति को न होने देना अप्रशस्त मनोविनय है। इन्हीं अप्रशस्त मन के प्रतिपक्षी निरवद्य, अक्रिय, अकर्कश आदि बारह प्रकार के प्रशस्त मन की प्रवृत्ति करना प्रशस्त मनोविनय है। आचार्यादि अथवा गुणीजनों के प्रति भन में प्रशंसा के भाव रखना भी मनोविनय है।
" ना मनाविनय हा
(५) वचनविनय-वचन की अशुभ प्रवृत्ति को सेकना तथा शुभ प्रवृत्ति में लगाना वचनविनय है। इसके भी दो भेद हैं। प्रशस्त वचनविनय तथा अप्रशस्त वचनविनय। अप्रशस्त-प्रशस्त मनोविनय की तरह द्विविध वचनविनय के भी प्रत्येक के १२-१२ प्रभेद समझ लेने चाहिए। आचार्यादि का तथा गुणीजनों की वचन से प्रशंसा करना, विनय करना भी वचनविनय है।' ___ (६) कायविनय का अर्थ है-उपयोग (यतना) पूर्वक काया को प्रवृत्त करना। इसके भी दो भेद हैं-अप्रशस्त कायविनय और प्रशस्त कायविनय। इन दोनों के ७-७ प्रभेद हैं। उपयोगशून्य होकर असावधानी (अयतना) से चलना, ठहरना, वैठना, सोना, उल्लंघन करना, प्रलंघन (बार-बार उल्लंघन) करना और उपयोगरहित होकर शरीर और इन्द्रियों को प्रवृत्त करना। इस ७ प्रकार के अप्रशस्त काय-प्रयोग का
१. (क) औपपातिकसूत्र तप प्रकरण, प्र. २०
(ख) 'चारित्रप्रकाश' (श्री धन मुनि जी) से भाव ग्रहण, पृ. २७६-२७७ (ग) स्थानांगसूत्र तथा भगवतीसूत्र में प्रशस्त और अप्रशस्त मन-वचन-विनय के सात-सात
भेद कहे गए हैं
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