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________________ ४ ३३८ कर्मविज्ञान : भाग ७ का पता चला कि थॉम्पसन महोदय दिनभर प्रसन्न रहते हैं, किन्तु १२ बजे से १ बजे तक वे किसी विचार में खोये-खोये से प्रतीत होते हैं। मनोचिकित्सक को जरा-सा सूत्र हाथ लग गया। अतः दूसरे दिन थॉम्पसन को दृढ़ विश्वास दिलाकर' कहा - " आप जरा भी छिपाये बिना जो भी, जैसी भी घटना हुई हो खोलकर रख दें।" इस पर आश्वस्त होकर थॉम्पसन ने अपनी पुरानी गाँठ खोली । उसने बताया कि प्रायः ठीक १२ बजे रैमिंजे कम्पनी के मालिक 'वान थेक्सी' उधर से निकलते हैं। हम दोनों किसी समय सहपाठी थे। जिस लड़की से मैं प्यार करता था, ज्ञात हुआ कि 'थेक्सी' भी उसमें रुचि रखते थे । अन्त में, उन्हीं के कारण उस लड़की ने मुझे अपमानित किया। तभी से 'थेक्सी' के प्रति मेरे मन में कटुता बढ़ती गई। उन्हीं के कारण मुझे एक बार व्यवसाय में घाटा उठाना पड़ा। इसी द्वेष के कारण जब भी वे सामने से गुजरते हैं, मेरी क्रोधाग्नि भभक उठती है और मैं उन्हें मार डालने तक की बात सोचने लगता हूँ ।" डॉ. ग्रोसमैन को उनके मनोरोग का निदान गया। उन्होंने फिजीशियन डॉ. ब्लेयर्ड से विचार-विमर्श करके बताया कि क्रोध और उत्तेजना मिश्रित ईर्ष्या के दौरे के ठीक समय में उनका मानसिक शरीर दूषित हो जाता है। तभी पेट में भयंकर पीड़ा उठती है, जो एकाएक उन्हें दबोच लेती है। मूल कारण उत्तेजना मिश्रित ईर्ष्या और क्रोधरूप मनोरोग था, जिसे डॉक्टर लोग पेट में बीमारी ढूँढ़ रहे थे । डॉ. ग्रोसमैन ने उन्हें ४ उपाय सुझाये - " ( १ ) जुडिशस सप्रेशन - अर्थात् मन में जो भी अच्छी-बुरी बात उठे, उसका विवेकपूर्वक विश्लेषण किया करें। दूसरों को (अपने हितैषियों को ) भी बताया करें। अपनी विवेकबुद्धि तीव्र रखें, ताकि छोटी से छोटी भूल पकड़ में आ जाये और पूर्वाग्रहरहित होकर सत्य, न्याय या व्यावहारिकता को ही उचित मानने का अभ्यास करें। (२) जुडिशस सग्रेगेशनअर्थात् उस स्थिति में निषेधपूर्ण चिन्तन के स्थान पर सद्भावपूर्ण आचरण करें । जैसे कि क्षमायाचना, मैत्रीपूर्ण व्यवहार, उपहार आदि । ( ३ ) जुडिशस फोरगेटफुलनेस - बार-बार उन बातों को मन में लाने की अपेक्षा, कोई अच्छी पुस्तक पढ़ने-सुनने या किसी के साथ सात्त्विक मनोविनोद करने जैसे किसी अन्य कार्य में मन को घुलाकर उस बात को भूल जाया करें। (४) इमेजिनेशन - अर्थात् अपनी आत्मा के सम्मुख अपने आप को खड़ा करके संवेदनापूर्ण चिन्तन किया करें। उस समय अपने आप को अबोध शिशु और अपनी अन्तरात्मा को माँ मानकर उस तरह की भावना जगाया करें, जैसी माँ-बेटे के बीच होती है । " थॉम्पसन महोदय ने उनकी बात को गम्भीरता से अनुभव किया। उन्होंने माना कि दूसरों से अपने अनुकूल आचरण की आशा रखने की अपेक्षा स्वयं को बदलने के लिए उपर्युक्त ४ बातों पर चलकर शान्ति प्राप्त करनी चाहिए । फलतः उन्होंने वान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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