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________________ * अप्रमाद-संवर का सक्रिय आधार और आचार * १५ ® हँसी-विनोद के योग्य रहता है, न खेलने के, न रति-सेवन के और न ही शृंगार/सज्जा के योग्य रहता है।" इसलिए जब तक बुढ़ापा पीड़ित नहीं करता, व्याधि आकर नहीं घेरती, इन्द्रियाँ क्षीण नहीं होतीं, तब तक (प्रमाद को हटाकर) धर्माचरण कर लो। “अतः अभी प्रमाद में पड़कर समय व्यर्थ न खोओ। प्रत्येक प्राणी स्वयं प्रमाद से दुःख और अप्रमाद से सुख पाता है, सबका सुख-दुःख अपना-अपना है। यह जानकर जो अवस्था (यौवन एवं शक्ति) अभी बीती नहीं है, इसे देखकर हे पण्डित ! जो क्षण (अवसर या समय) वर्तमान में उपस्थित है, वही महत्त्वपूर्ण है, उसे ही सफल बना।"१ अप्रमादाचारी : स्वजनों के साथ रहते हुए भी उनमें आसक्त न हो साथ ही भगवान ने यह भी कहा-"इस प्रकार जो विषयार्थी गृहवासी प्रमत्त यह मानता है-माता, पिता, भाई, बहन, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू, सखा, स्वजन-सहवासी मेरे हैं, मेरे ही ये प्रचुर उपकरण (मकान, धन, अश्व, रथ, आसन आदि), परिवर्तन (लेन-देन की सामग्री या व्यवसाय), भोजन, वस्त्र आदि हैं। यों जो व्यक्ति ममत्व (मेरे मन) में आसक्त होकर स्वजनादि के साथ रहता है, वह प्रमत्त पुरुष अज्ञानवश अहर्निश चिन्तित, संतप्त, तृष्णाकुल, उद्विग्न रहता है, लोभ-लालच में पड़ा रहता है, (उनके तथा अपने लिए) हिंसादि नाना पापकर्म करता रहता है। वह जिन स्वजन-परिजनों के साथ रहता है, वे कभी (अशुभ कर्मोदयवश) उसका तिरस्कार अपमान भी कर बैठते हैं, कटु वचन कह देते हैं, वह भी स्वजनों की निन्दा करने लगता है। इस प्रकार प्रमादासक्त पुरुष के लिए वे न तो रक्षा करने में और न ही शरण देने में समर्थ होते हैं।''२ इसलिए उनका (सभी पर-पदार्थों का) सम्बन्ध क्षणिक, अनित्य और त्याज्य समझकर पहले से ही प्रमादवश उनमें आसक्ति, ममता, मूर्छा न रखे। 1. (क) वओ अच्चेइ जीव्वणं च। -आचारांग, श्रु. १, अ. २, उ. १ (ख) से ण हासाए ण किड्डाए, ण रतीए, ण विभूसाए। -वही, श्रु. १, अ. २, उ. १ (ग) जरा जावं न पीडेइ, वाही जावं न वड्ढइ। जाविंदिया न हायंति ताव धम्मं समायरे॥ -दशवैकालिक (घ) जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं; अणभिक्कंतं च खलु वयं संपेहाए, खणं जाणाहि पंडिए ! (क) इति से मुणट्ठी महया परितावेणं वसे पमत्ते, तं. माया मे, पिया मे धूया मे, सुण्हा मे, सहिसयण-संगंथ-संथुता मे, विवित्तोवगरण-परियट्टण-भोयण-अच्छायणं मे। इच्चत्थं गड्ढिए लोए वसे पमते। -आचारांग, श्रु. १, अ. २, उ. १ (ख) जेहिं वा सद्धिं संवसति ते व णं एगया णियगा पुट्विं परिवदंति, सो वा ते णियगे पच्छा परिवदेज्जा। णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा। -वही, श्रु. १, अ. २, उ. १ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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