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________________ ॐ १४ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ चाहिए' उसके प्रति राग और 'न चाहिए' उसके प्रति द्वेष उत्पन्न होते हैं। यही अप्रमादी साधक की कसौटी है। शरीर, इन्द्रियाँ आदि का स्वरूप समझकर प्रमाद में न फँसो ____ अप्रमाद के पथ पर चलने के लिए साधक को एक सजग प्रहरी की भाँति सचेष्ट रहना पड़ता है। मनुष्य के साथ-साथ शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि चलते हैं, वैसे अनेक प्राणी और मनुष्यों से भी उसका सम्पर्क होता है, सम्बन्ध भी जुड़ता है, परन्तु वह यदि सावधान रहकर, शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि की नश्वरता, क्षण-भंगुरता, अनित्यता, अशरणता आदि का चिन्तन करके इनसे केवल कर्मक्षयार्थ तप, जप, संवर, समत्व आदि की साधना करे, इनसे काम ले, किन्तु इनके निमित्त से राग, द्वेष, क्लेश, कषाय उत्पन्न होते हों तो तुरंत हट जाए। इसी अपेक्षा से भगवान महावीर ने अप्रमाद-संवर के साधकों को शरीरादि के विषय में गहराई से चिन्तन की प्रेरणा दी है। सर्वप्रथम प्रिय मनुष्य का शरीर, मन और इन्द्रिय-समूह है। अतः भगवान ने कहा-(यह शरीर, जिसे तुम अत्यन्त प्रिय मानकर आसक्त होते हो, इसके लिए प्रमादवश हिंसादि पापकर्म करते हो) यह प्रिय लगने वाला शरीर (एक न एक दिन) पहले या पीछे अवश्य छूट जाएगा। इस रूप-सन्धि (देह के स्वरूप) को देखो। छिन्न-भिन्न एवं विध्वंस होना इसका स्वभाव है। यह अध्रुव, अनित्य और अशाश्वत है। इसमें चय-उपचय (बढ़-घट) होता रहता है, विविध परिवर्तन होते रहना इसका स्वभाव है। इसके पश्चात् इन्द्रियाँ मनुष्य को अत्यन्त प्रिय हैं, जिन्हें अज्ञानवश वह विषय-सुख की कारण मानता है, उसके लिए भगवान ने कहा-"इस संसार में अधिकांश मनुष्यों की आयु अत्यन्त अल्प है, क्योंकि श्रोत्रप्रज्ञानं, चक्षुप्रज्ञान, घ्राणप्रज्ञान, रसप्रज्ञान और स्पर्शप्रज्ञान के परिहीन (अत्यन्त क्षीण) हो जाने पर वह अल्पायु में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।"१ शरीरादि के साथ रहते हुए भी अप्रमत्त रहकर पराक्रम करें इन्द्रियाँ, वचन, मन, बुद्धि आदि सब शरीर से सम्बद्ध हैं। शरीर रहता है, तो ये रहते हैं, शरीर के समाप्त होते या क्षीण जराजर्जर होते ही ये भी क्षीण, समाप्त या जीर्ण हो जाते हैं। इसके लिए भगवान ने बार-बार कहा-“तुम्हारी आयु व्यतीत हो रही है, यौवन भी बीत रहा है। बुढ़ापा आने पर वह जराजीर्ण वृद्ध पुरुष न १. (क) से पुव्वं पेयं भेउरधम्मं विद्धंसणधम्म अधुवं अणितियं असासतं चयो-व-चइयं विप्परिणामधम्म। पासह एयं रूवसंधि। -आचारांग, श्रु. १, अ. ५, उ. २ (ख) अप्पं च खलु आउं इहमेगेसिं माणवाणं। तं जहा-सोतपण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं, चक्खुपण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं, घाणपण्णाणेहिं परिहायमागेहिं, रसपण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं, फासपण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं। -वही, श्रु. १, अ. २, उ. १ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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