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________________ * ३१८ कर्मविज्ञान : भाग ७ मार्ग (सम्यग्दर्शन) और मार्गफल (सम्यग्ज्ञान) को विशुद्ध कर लेता है । तदन्तर वह आचार (पंचाचाररूप चारित्र) और आचारफल की आराधना ( सम्यक् साधना ) कर पाता है ।" " पाप-शोधनरूप प्रायश्चित्त न करने पर जन्म-मरणादि का भयंकर दुःख अतः पाप-शोधनरूप प्रायश्चित्त न किया तो इहलोक और परलोक में जीव को स्वकृत दुष्कर्म के फल के रूप में नाना दुःख भोगने पड़ेंगे। पापकर्मजनित पीड़ा कितनी भयंकररूप में मिलती है। इसे 'मार्कण्डेय पुराण' के शब्दों में पढ़िये पादन्यास-कृतं दुःखं कण्टकोत्थं प्रयच्छति । तत्-प्रभूततर-स्थूल-शंकु-कीलक-सम्भवम् ॥२५॥ दुःखं यच्छति तद्वच्च शिरोरोगादि- दुःसहम् । अपथ्याशन- शीतोष्ण-2 -श्रम-तापादि-कारकम् ॥२६॥ इनका भावार्थ यह है कि पैर में काँटा लगने पर तो उस काँटे से होने वाली पीड़ा (दुःख) तो एक ही जगह होती है, इससे भी बढ़कर दुःख स्थूल शंकु और कील से होता है और उससे भी बढ़कर अपथ्य भोजन, ठण्ड, गर्मी, श्रम, तप आदि से कृत दुःसह मस्तक - रोगादि दुःख होते हैं, मगर पापकर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले असह्य दुःख तो तन और मन में निरन्तर शूल उत्पन्न करते रहते हैं। वास्तव में, विभिन्न योनियों और गतियों में जन्म-मरणादि का दुःख तो इनसे भी अनन्त गुना भयंकर है। ये दुःख तभी दूर हो सकते हैं, जब स्वेच्छा से शुद्ध अन्तःकरणपूर्वक प्रायश्चित्ततप स्वीकार किया जाये। तभी आत्म-शुद्धि होगी। प्रायश्चित्त, प्रक्रिया के चार मुख्य चरण प्रश्न होता है, प्रायश्चित्त आत्म-शुद्धि का ध्रुव-मार्ग है और उस पर स्वयं साधक द्वारा चलना अनिवार्य है, तब उसकी सर्वमान्य और ठोस प्रक्रिया क्या है ? इसके उत्तर में आचार्य अमितगति ने 'सामायिक पाठ' में कहा है- "प्रभो ! मन, वचन, काया तथा कषायों द्वारा मैंने संसार के दुःखों के कारणभूत जो कुछ भी पापाचरण किया हो, उन सब पापों को मैं आलोचना, निन्दना और गर्हणा के द्वारा १. (क) देखें - स्थानांगसूत्र, स्था. ४, उ. ३, सू. ३६२ ( आश्वाससूत्र ) (ख) पायच्छित्तकरणेणं पावकम्मविसोहिं जणयइ । निरइयारे यावि भवइ । सम्मं चणं पायच्छित्तं पडिवन्नमाणे मग्गं च मग्गफलं च विसोहेइ । आयारं च आयारफलं च आराहेइ । - उत्तराध्ययन, अ. २९, सू. १६ २. मार्कण्डेय पुराण, श्लो. २५-२६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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