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________________ प्रायश्चित्त: आत्म- -शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय ३१७ नाम प्रायश्चित्ततप है। प्रायश्चित्ततप के आचरण से पापी से पापी तथा अनेक दोषों और अपराधों से भरे व्यक्ति का जीवन धर्मात्मा के रूप में परिवर्तन हो जाता है । मन में प्रादुर्भूत होने वाले राग-द्वेषादि कालुष्यों को धो डालने की प्रक्रिया प्रायश्चित्ततप में निहित है । अन्तर मल को प्रायश्चित्ततप द्वारा शीघ्र दूर करना आवश्यक पापों और दोषों से मन-वचन-काया द्वारा कृत अपराधों से आत्मा मलिन एवं दूषित हो रही हो, उस समय मुमुक्षु व्यक्ति को प्रायश्चित्त तपश्चरण द्वारा प्रमाद किये बिना शीघ्रातिशीघ्र उस मलिनता को दूर करना आवश्यक है। पैर में काँटा चुभ जाये तो सारे शरीर में बेचैनी होती है, नींद नहीं आती। जब तक उसे बाहर नहीं निकाला जाता, तब तक मन को शान्ति नहीं मिलती। फोड़े में मवाद पड़ गई हो, तो रोगी को उसे फौरन निकालना अनिवार्य हो जाता है, अन्यथा उसका जहर सारे शरीर में फैलकर रोगी के लिए जानलेवा बन सकता है। इसी प्रकार आत्मा के कहीं माया, निदान और मिथ्यादर्शनशल्यरूप तीखा काँटा चुभ गया हो तो उसे शीघ्रातिशीघ्र निकालना अनिवार्य है; वह प्रायश्चित्त द्वारा ही निकाला जा सकता है। इसी प्रकार कहीं प्रमादवश पाप या दोषरूप फोड़ा अनेक अनिष्टकारी मवादों से भर गया हो, तब उसको प्रायश्चित्त प्रक्रिया द्वारा तुरन्त निकालने में लापरवाही बरती जाये तो वह भी सारे आध्यात्मिक जीवन में व्याप्त होकर साधना का सर्वनाश कर देगा। भगवान महावीर ने बताया है कि “जिस प्रकार भारवाहक के सिर से बोझ - उतर जाने पर वह स्वयं को हलका-फुलका, स्वस्थ और आश्वस्त महसूस करता है, इसी प्रकार प्रायश्चित्त द्वारा अन्तरात्मा पर से पाप-दोषों का भार उतर जाने पर आत्मा भी स्वयं को स्वस्थ, आश्वस्त और हलकी-फुलकी महसूस करती है । " अतः साधक को अव्वल तो पाप - दोषों से सावधान रहना चाहिए, किन्तु छद्मस्थ होने के कारण कदाचित् ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की साधना में कोई गलती, भूल, दोष, अपराध या त्रुटि हो जाये तो उसे तुरन्त सँभलकर प्रायश्चित्त द्वारा आत्म-शुद्धि कर लेनी चाहिए । प्रायश्चित्त द्वारा पापों का परिमार्जन कर लेने पर उसके तन-मन में स्वस्थं, शान्ति और स्फूर्ति महसूस होने लगेगी। यदि उपेक्षा की जायेगी तो पाप - दोष बढ़ते जायेंगे। कोई भी आत्म-साधना शुद्ध रूप में न हो सकेगी और न कर्मनिर्जरा हो सकेगी। भगवान महावीर ने प्रायश्चित्तकरण का महालाभ बताते हुए कहा - " प्रायश्चित्त करने से जीव की पाप-विशुद्धि हो जाती है । ( उसके सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय) भी निरतिचार (दोषरहित) हो जाते हैं । सम्यक्रूप से प्रायश्चित्त स्वीकार करने पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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