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आभ्यन्तरतप के सन्दर्भ मेंप्रायश्चित्त : आत्म-शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय
सम्यक्तप की महिमा सम्यक्तप मनुष्य-जीवन का सर्वश्रेष्ठ वरदान है। यह सर्वश्रेष्ठ धर्म और मोक्षपुरुषार्थ का साधक है। ‘आत्मानुशासन' के अनुसार-“इस लोक में आत्मा के साथ लगे हुए क्रोधादि या राग-द्वेषादि विभावरिपुओं पर सम्यक्तप विजय दिलाता है। इसी लोक में वह क्षमा, मार्दव, निर्लोभता, आर्जव, विनय, शान्ति, सन्तोष आदि गुणों को प्राप्त कराता है तथा परलोक में मोक्षपुरुषार्थ को सिद्ध कराता है, अतएव वह परलोक में भी हित-साधक है। इस प्रकार विचार करके जो विवेकी मानव हैं, वे उभयलोक के संताप को दूर करने वाले सम्यक्तप में अवश्य प्रवृत्त होते हैं।' तपःसमाधि कब और कब नहीं ? _ 'भगवती आराधना' में तपोधर्म-पालन का प्रयोजन बताते हुए कहा गया है"जो मानव शक्ति के अनुसार बाह्य-आभ्यन्तरतप में सम्यक् प्रकार से प्रवृत्त नहीं होता, मानना चाहिए, वह अपनी आत्मा को विषयासक्ति, अविरति एवं प्रमाद तथा कषायों में फँसाता है और अपनी शक्ति को भी छिपाता है। सुखासक्त होने से उस जीव का अनेक भवों में तीव्र दुःखदायक असातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है।" 'समाधिशतक' में भी कहा गया है-“सम्यक्तपःसमाधि वही प्राप्त कर सकता है, जो अविनाशी आत्मा को शरीर से भिन्न जानता है, अन्यथा घोर तपश्चरण करके भी मोक्ष को नहीं प्राप्त कर सकता।"२ इसी तथ्य का समर्थन 'योगसार' में किया
-आत्मानुशासन ११४
१. इहैव सहजान् रिपून विजयते प्रकोपकादीन्।
गुणाः परिणमन्ति यातसुभिरप्ययं वांछति॥
पुरश्च पुरुषार्थ-सिद्धिरचिरात् स्वयं यामिनी। . नरो न रमते कथं तपसि तापसंहारिणि॥ २. अप्पा य वंचिओ तेण, होई विरियं च गृहियं भवदि।
सुह सीलदाए जीवो बंधरि हु असादवेयणीयं । ३. यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम्। - लभते स न निर्वाणं तप्त्वाऽपि परमं तपः।
-भगवती आराधना १४५३
-समाधिशतक ३३
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