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________________ * २८४ 8 कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ सम्पन्न कुल में न होकर अन्त, प्रान्त, तुच्छ, दरिद्र, कृपण या भिक्षुक कुल में से किसी कुल में हो, ताकि हमें अनायास ही भोगों से विरक्ति हो सके और हम निर्ग्रन्थधर्म में प्रव्रजित हो सकें। इस प्रकार का निदान करके वे निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी उसकी आलोचना-प्रतिक्रमण न करके पूर्वोक्त निदानानुरूप अन्त-प्रान्तादि में से किसी कुल में जन्म लेकर भोगों से विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण करते हैं, पंचमहाव्रत, समितिगुप्ति आदि का निर्दोष पालन करके, अन्तिम समय में संलेखना-संथारा करते हैं, आलोचना-प्रतिक्रमण कर समाधिमरण प्राप्त करते हैं, कालधर्म पाकर देवलोक में उत्पन्न होते हैं, किन्तु उक्त निदान के पापफल विपाक के कारण उसी भव में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होकर सर्वदुःखों का अन्त नहीं कर सकते। सर्वत्र निदानरहित तप आदि साधना प्रशस्त एवं विहित ये हैं विभिन्न प्रकार के नौ निदान, जो उच्च साधक-साधिकाओं के लिए: अध्यात्म-विकास में बाधक और श्रावक-श्राविकाओं के लिए भी महाहानिकर कई निदानों में दुर्लभबोधिरूप तथा धर्मश्रवण, व्रतग्रहण में भी बाधक ! ये सभी निदान पापकर्म के फलदायक होने से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से मोक्ष-प्राप्ति की दूरी बढ़ाने वाले हैं। भगवान महावीर द्वारा निदान के ये स्वयं अनुभूत, केवलज्ञान के प्रकाश में ज्ञात और लोकजीवन में इसी रूप में घटित होने वाले तथ्य हैं।' १. (I-II) जं पासित्ता निग्गंथे/निग्गंथी नियाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइय-अपडिक्कते जइ इमस्स तव-नियम-संजम-बंभचेरवासस्स तं चेव साहु। तस्स णं पुरिसजायस्स तहारूवे समणे वा माहणे वा उभओ कालं केवलिपन्नत्तं धम्ममाइक्खेज्जा, अभविए णं से तस्स धम्मस्स सवणयाए। से य भवइ महिच्छे महारंभे महापरिग्गहे अहम्मिए जाव दाहिणगामी नेरइए; आगमिस्साणं दुल्लहबोहिए या वि भवइ। एवं खलु समणाउसो ! तस्स नियाणस्स इमेयारूवे पावफलविवागे जं णो संचाएइ केवलिपन्नत्तं धम्म पडिसुणित्तए। (III) जं पासित्ता निग्गंथे नियाणं करेइ दुक्खं खलु पुमत्ताएइत्थियत्तं साहू (सेसं तं चेव)। (IV) जं पासित्ता निग्गंथी नियाणं करेइ, दुक्खं खलु इत्थित्तं, पुमत्तयणं साहू (सेसं तं चेव)। (IV) निग्गंथे वा निग्गंथी वा माणुसग्गा कामभोगा अणितिया...(जाव) विप्पजहणिज्जा। दिव्वाइं कामभोगाइं भुंजमाणा विहरामो। एवं नियाणं किच्चा (सेसं तं चेव) (णवरं) तहारूवे समणे वा माहणे वा जाव पडिसुणिज्जा जंणो संचाएइ केवलिपण्णत्तं धम्मं सद्दहित्तए पत्तिइत्तए वा रोइत्तए वा। (VI) अण्णरुई रुइमादाय से य भवइ। से जे इमे आरण्णिया आवसहिया गामंतिया कण्हुइ रहस्सिया, णो बहुसंजया, णो बहुविरया (सेसं तं चेव)। (VII) निग्गंथो वा निग्गंथी वा नियाणं किच्चा से णं दसणसावए भवइ। तस्स नियाणस्स इमेयारूवे पावए फलविवागे, जं णो संचाएइ सीलव्वयवेरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासाइं पडिवज्जित्तए। (सेसं तं चेव सव्वं)। (VIII) माणुसग्गा इव दिव्वा वि खलु कामभोगा अधुवा अणितिया (जाव) अवस्सं विप्पजहणिज्जा। पुमत्ताए पच्चायंति, तत्थ णं समणोवासए भविस्सामि से णं " जाव पडिसुणिज्जा, सद्दहेजा जाव रोएज्जा। - - - - सीलव्वयं जाव पोसहोववासाई पडिवज्जेज्जा तस्स णियाणस्स इमेयारूवे पावफलविवागे, जे णं णो संचाएइ सव्वओ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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