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________________ * सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण : सम्यक्तप 8 २८३ 8 भोगसुखनिमग्न होकर पापफल विपाकरूप निदान के कारण केवलिप्रज्ञप्त धर्म का श्रवण नहीं कर पाता, दुर्लभबोधि बनता है। चौथा निदान-पूर्ववत् निर्ग्रन्थधर्म में दीक्षित निर्ग्रन्थी स्त्रीपर्याय को दुःखरूप मानकर पुरुषपर्याय का निदान करती है। आलोचनादि न करने से विराधक बनी हुई वह निर्ग्रन्थी देवलोक के अनन्तर पुरुषपर्याय को प्राप्त होकर भोगसुखों में डूबकर सद्धर्मश्रवण नहीं कर पाती। _पाँचवाँ निदान-पूर्ववत् कई निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी मानवीय कामभोगों को अनित्य, असार एवं अवश्य त्याज्य घृणित जानकर दिव्यकामभोगों का निदान करके अपनी तथा अन्य देव-देवियों की विकुर्वणा करके कामभोग भागने का दुःसंकल्प करते हैं। फलतः प्रायश्चित्तादि न करके विराधक बने हुए वे निदानानुरूप फल प्राप्त कर लेते हैं और तथारूप श्रमण या माहन से सद्धर्म श्रवण भी कर लेते हैं, मगर उस पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं कर पाते। छठा निदान-पूर्ववत कई निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी मानवीय कामभोगों को अरुचिकर जानकर दिव्य कामभोगों का उनमें भी अपने ही देवी-देवों को वैक्रिय करके भोगने का निदान करते हैं। तथैव फल पाते हैं। किन्तु जिनधर्म को सुन-समझकर भी अन्य धर्मों में रुचि रखते हैं। - सातवाँ निदान-ऐसे निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी, जो दिव्य कामभोगों का निदान करते हैं, उसमें भी बिना वैक्रिय किये अपने ही देवी-देव परस्पर परिचारणा करने का दुःसंकल्प करते हैं। वे उक्त निदान के फलस्वरूप अविरति सम्यग्दृष्टि बन सकते हैं, किन्तु शील-गुण-अणुव्रत तथा प्रत्याख्यान-पौषध-उपवास आदि स्वीकार नहीं कर सकते। ... आठवाँ निदान-कई श्रमण निर्ग्रन्थ या तपस्वी साधक दिव्य और मानवीय दोनों प्रकार के कामभोगों से विरत होकर ऐसा निदान करते हैं कि हमारे तप-संयमादि के फलस्वरूप हम अगले जन्म में उग्रकुल आदि में पुत्ररूप में जन्म लेकर नवतत्त्व-ज्ञाता श्रमणोपासक बनें। इस निदान की आलोचनादि न करने के कारण वे देव बनकर फिर अगले जन्म में मनुष्य बनते हैं और निदानानुसार केवलिप्रज्ञप्तधर्म का श्रवण, श्रद्धा, प्रतीति, रुचि करके बारह व्रतधारी श्रावक तो बन जाते हैं, किन्तु अनगारधर्म में प्रव्रजित नहीं हो पाते, यह उक्त निदानरूप पापफल का विपाक है। नौवाँ निदान कतिपय निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी दिव्य एवं मानुष्य कामभोगों से • विरक्त होकर निर्ग्रन्थधर्म में प्रव्रजित होकर इस प्रकार का निदान करते हैं कि हमें अपने तप, संयम आदि का फल प्राप्त हो तो हमारा आगामी जन्म किसी समृद्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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