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________________ * सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण : सम्यक्तप * २८१ ® में विराजमान थे। उस समय महाराजा श्रेणिक अपनी महारानी चेलणा आदि राजपरिवार के सहित उन्हें वन्दन करने के लिए आए। राजा श्रेणिक और रानी चेलणा को अपूर्व रूप, लावण्य एवं समस्त मानवीय भोगों से समृद्ध देखकर कई श्रमणों ने मन में निदान किया कि हमारे तप, संयम और ब्रह्मचर्य आदि की साधना का फल हमें मिले तो हम भविष्य में राजा श्रेणिक जैसे बनें; इसी प्रकार कई श्रमणियों ने मन में निदान किया कि हम आगामी जन्म में चेलना जैसी भाग्यशालिनी रानी बनें।” सर्वज्ञ भगवान महावीर ने उसी समय उन श्रमण-श्रमणियों को सम्बोधित करते हुए कहा-राजा-रानी युगल की समृद्धि एवं रूप-लावण्य को देखकर तुम लोगों ने जो निदान दुःसंकल्प मन ही मन किया है, उसका पापरूप फलविपाक बहुत ही भयंकर होगा। दीर्घकाल तक आचरित सम्यक्तप, नियम, संयम, ब्रह्मचर्य आदि के आचरण के बदले में तुम्हें अति तुच्छ एवं अल्पफल मिलेगा। अपने कृत निदान के फलस्वरूप तुम्हें उसका वांछित अल्पफल तो मिल जाएगा, लेकिन इसके कारण फिर तुम अपने धर्म से तथा सम्यक्त्व से भ्रष्ट हो जाओगे। लाख प्रयत्न करने पर भी केवलिप्ररूपित धर्म का श्रवण न कर सकोगे, कदाचित धर्मश्रवण कर लिया, तो भी उसके प्रति श्रद्धा, प्रतीति, रुचि आदि नहीं कर सकोगे। दीर्घकाल तक दुर्लभबोधि बनकर संसार-चक्र में परिभ्रमण करते रहोगे। अतः इन कामभोगों की आसक्ति से मुक्त होकर, सर्वसंग का परित्याग करो, व्रतों की शुद्ध आराधना करो, निदान का प्रायश्चित्त करो, ताकि तुम अपने शुद्ध आत्म-स्वरूप का दर्शन कर सको; कर्मावरणों का क्षय करके अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय रूप आत्म-गुणों से परिपूर्ण होकर अनन्त अव्याबाध सुखरूप (सर्वदुःख-सर्वकर्ममुक्तिरूप) मोक्ष को प्राप्त कर सको।' ___ भगवान की सर्वकल्याणकारिणी वाणी सुनकर समस्त श्रमण-श्रमणी अपने द्वारा किये हुए निदान का प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो गए।' - 'राजवार्तिक' में भी कहा गया है-“तप में दृष्ट-फल-निरपेक्षता (निदानरहितता) होनी आवश्यक है, इसीलिए शास्त्र में जहाँ-जहाँ तप शब्द आया है; वहाँ-वहाँ सर्वत्र 'सम्यक्' शब्द की अनुवृत्ति करनी चाहिए।' १. तत्थेगइयाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य सेणियं रायं चेल्लणं च देविं पासित्ता णं इमे एयारूवे अज्झथिए जाव संकप्पे समुष्पज्जित्था जइ इमस्स सुचरियस्स तव-नियम-संजमबंभचेरगुत्ति-फलवित्ति-विसेसे अत्थि, तया वयमवि आगमेस्साणं इमाइं ताई उरालाई एयारूवाइं माणुस्सग्गई भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरामो। से तं साहु। एयमढे सोच्चा निसम्म तस्स ठाणस्स आलोयंति पडिक्कमंति जाव अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जति। -दशाश्रुतस्कन्ध, दशा. १0, सू. २३७-२४0, २६७ २. इत्यतः सम्यग्-ग्रहणमनुवर्तते तेन दृष्ट-फल-निवृत्तिः कृता भवति सर्वत्र। -राजवार्तिक ९/१९/१६/६१९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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