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________________ * २८० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 तप की साधना के फलस्वरूप मुझे भी ऐसी ऋद्धि या वैभव प्राप्त हो। इस प्रकार अमुक वस्तु या व्यक्ति को पाने की उत्कट लालसा, गाढ़ आसक्ति और तीव्र आकर्षण के फलस्वरूप तीव्र रागवश अपने सम्यक्तप या संयम-नियमादि की साधना को बेच देना, नष्ट कर देना निदान है।" निदानकरण से कितनी हानि, कितना लाभ ? निदान प्रारम्भ में बहुत ही सरस और सुखोत्पादक लगता है, किन्तु जब उसका फल मिलता है, तब घोर पश्चात्ताप होता है। निदान करने वाले तपःसाधक को भविष्य में सम्यक् बोधिलाभ प्राप्त होना दुर्लभ हो जाता है। निदान की ललक मन में जागते ही साधक अपनी साधना से पतित और भ्रष्ट हो जाता है। वह मन में किये हुए भोगलालसा के निदानरूप पाप की आलोचना करके प्रायश्चित्त ग्रहण करके शुद्ध न होने पर तप आदि साधना का विराधक हो जाता है, धर्म से भी. पतित और अस्थिर हो जाता है।' 'स्थानांगसूत्र' में बताया गया है कि जैसे बार-बार बोलने से-वाचालता से सत्य वचन का तेज क्षीण हो जाता है, बार-बार लोभ करने से निःस्पृहता का प्रभाव नष्ट हो जाता है, वैसे ही बार-बार निदान करने से तप का तेज क्षीण हो जाता है। निदान करने से तप का उत्तम फल नष्ट हो जाता है। इसलिए निदान करना मोक्षमार्ग का पलिमत्थू (विघ्नकारक = बाधक) है। भगवान ने सर्वत्र निदानरहित तप करने को श्रेष्ठ बताया है।' भगवान महावीर ने श्रमण-श्रमणियों को निदान से विरत किया इस सम्बन्ध में ‘दशाश्रुतस्कन्ध' में एक प्रसंग का उल्लेख है-“एक बार राजगृहनगर में भगवान महावीर स्वामी अनेक श्रमण-श्रमणियों सहित समवसरण १. (क) भवकोडिसंचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ। -उत्तराध्ययन (ख) 'जैनधर्म में तप : स्वरूप और विश्लेषण' में 'तप का पलिमंथु : निदान' से भावांश ग्रहण, पृ. 904 (ग) तीन प्रकार के शल्य हैं-मायाशल्य, निदानशल्य और मिथ्यादर्शनशल्य। शल्यतेऽनेनेतिशल्यम्। -आवश्यक हारि. वृत्ति (घ) दिव्य-मानुष-ऋद्धि-सन्दर्शन-श्रवणाभ्यां तदभिलाषाऽनुष्ठाने। -आवश्यक ४ (ङ) स्वर्ग-मादि-ऋद्धिप्रार्थने। -स्थानांग वृत्ति १० (च) भोग-प्रार्थनायाम्। -व्यवहारभाष्य वृत्ति (छ) निदायते लूयते ज्ञानाधाराधना-लता आनन्द-रसोपेत-मोक्षफला, येन परशुनेव देवेन्द्रादिगुणर्द्धि-प्रार्थनाऽध्यवसायेन तन्निदानम्। -स्थानांग वृत्ति १० २. मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमंथू भिज्जा णिदाणकरणे मोक्खमग्गस्स पलिमंथू। सव्वत्थ भगवया अणियाणया पसत्था। -स्थानांग ६/३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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