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________________ ®. २५८ कर्मविज्ञान : भाग ७ * कृतकृत्य होते हुए भी छद्मस्थ (अल्पज्ञ) जनों के लिए स्वयं निर्जरा का आचरण करके आदर्श का निदर्शन प्रस्तुत करते हैं। चतुर्थ सुखशय्या : परीषह-उपसर्ग-सहन से होने वाली एकान्त निर्जरा इस प्रकार के आदर्श की प्रतिक्रिया और उसी का अनुसरण श्रमण निर्ग्रन्थों के जीवन में किस प्रकार उत्कृष्ट निर्जरा के रूप में अवतरित होता है, इसका वर्णन 'स्थानांगसूत्र' में प्रतिपादित चतुर्थ सुखशय्या के रूप में देखिये-"चौथी सुखशय्या यह है कि कोई व्यक्ति मुण्डित होकर आगारधर्म से अनगारधर्म में प्रव्रजित होता है, तब उसके मन में एक अध्यवसाय होता है कि अर्हन्तं भगवान यदि हृष्ट-पुष्ट, निरोग, बलिष्ठ और स्वस्थ होकर भी कर्मों का क्षय (निर्जरा) करने के लिए (भगवान महावीर की तरह) उदार, कल्याण, विपुल, प्रयत, प्रगृहीत, महानुभाग तथा कर्मक्षय (निर्जरा) करने के कारणरूप तपःकर्मों (बाह्याभ्यन्तर तपश्चरणों) को स्वीकार करते हैं, तंब मैं आभ्युपगमिकी (स्वेच्छापूर्वक स्वीकृत) तथा औपक्रमिकी (सहसा आई हुई प्राणघातक) वेदना को क्यों न सम्यक् प्रकार से सहूँ? क्यों न क्षमा धारण करूँ? और क्यों न वीरतापूर्वक वेदना के समय अविचलित (स्थिर) रहूँ ? यदि मैं उभयवेदनाओं को सम्यक प्रकार से नहीं सहँगा या स्थिर नहीं रहँगा, तो मुझे एकान्तरूप से पापकर्म होगा। इसके विपरीत यदि मैं इन दोनों वेदनाओं को समभाव से सहन करूँगा, यावत् स्थिर रहूँगा तो एकान्तरूप से मेरे कर्मों की निर्जरा होगी। राजर्षि उदायी ने उपसर्ग समभाव से सहकर महानिर्जरा की. सिन्धुसौवीर आदि सोलह देशों के राजा उदायी ने वीतभयपट्टणनगर में भगवान महावीर का उपदेश सुना। संसार से विरक्त होकर अपने भागिनेय केशी को समस्त राज्य सौंपकर भगवान महावीर से आर्हती मुनि दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा लेने के पश्चात् उन्होंने समस्त अंगशास्त्रों का अध्ययन किया और मासखमण तप प्रारम्भ किया। तदनन्तर विशिष्ट अध्यात्म-साधना के लिए राजर्षि उदायी मुनि अहावरा चउत्था सुहसेज्जा-से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए; तस्स णं एवं भवति-जइ ताव अरहंता भगवंतो हट्ठा अरोगा, बलिया कल्लसरीरा अण्णयराइं ओरालाई कल्लाणाइं विउलाई पयताई पग्गहिताई महाणुभागाइं तवोकम्माइं पडिवज्जंति, (किमंग पुण अहं अब्भोवगमि ओवक्कमियं वेयणं णो सम्मं सहामि खमामि तितिक्खेमि अहियासेमि? ममं च णं अब्भोवगमि ओवक्कमियं वेयणं सम्मं सहमाणस्स अक्खममाणस्स अतितिक्खेमाणस्स अणहियासेमाणस्स एगंतसो मे पावे कम्मे कज्जति. ममं च णं अब्भोवगमिओवक्कमियं वेयणं सम्म सहमाणस्स जाव अहियासेमाणस्स एगंतसो मे णिज्जरा कज्जति। -स्थानांग, स्था. ४, उ. ३, सू. ४५१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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