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________________ ॐ निर्जरा के विविध स्रोत * २५७ * पर राग-द्वेषरहित होने से उनके पापकर्म का बंध तो कतई नहीं होता, किन्तु वे उदयागत परीषहों या उपसर्गों को समभावपूर्वक सहने के लिए किस प्रकार का विधायक चिन्तन करते हैं, इसकी झाँकी भी ‘स्थानांगसूत्र' के पूर्वोक्त सूत्रपाठ से अगले ही सूत्रपाठ में दी गई है। उनका विधेयात्मक चिन्तन इस प्रकार है-यह पुरुष निश्चय ही विक्षिप्तचित्त (शोक, उद्विग्नता आदि से बेभान) है हप्तचित्त (उन्मादयुक्त) है या यक्षाविष्ट है इसलिए मुझ पर आक्रोश करता है, मुझे गाली देता है, मेरा उपहास करता है, मुझे बाहर निकालने की धमकी देता है या मेरी निर्भर्त्सना करता है या मझे बाँधता या रोकता है या छविच्छेद करता है या वधस्थान में ले जाता है या उपद्रुत करता (डराता या डाँटता-फटकारता) है या वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन का छेदन, भेदन या अपहरण करता है। ये तीन प्रकार के विधायक चिन्तन और चौथा चिन्तन-अनुप्रेक्षण होता है-“इस भव में वेदन करने (भोगने) योग्य मेरे (असातावेदनीय) कर्म उदय में आ रहे हैं, इसीलिए यह पुरुष मुझ पर आक्रोश करता है, यावत् अपहरण करता है। साथ ही उनका पाँचवाँ अनुप्रेक्षण यह भी होता है__ “मुझे सम्यक प्रकार से अविचलभाव से (उदयागत) परीषहों और उपसर्गों को सहन करते हुए, तितिक्षा और क्षान्ति रखते हुए तथा उनसे प्रभावित न होते हुए देखकर बहुत-से अन्य छद्मस्थ श्रमण निर्ग्रन्थ उदयागत परीषहों और उदयागत उपसर्गों को सम्यक् प्रकार से अविचलभाव से सहन करेंगे, क्षान्ति और तितिक्षा रखेंगे तथा उनसे प्रभावित नहीं होंगे।" ____ 'भगवद्गीता' में कहा गया है कि "श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, सामान्य जन भी उसी का अनुसरण करते हैं; वह व्यक्ति जिस आचरण को (अपने जीवन में स्वयं आचरित करके) प्रमाणित कर देता है, लोग भी फिर उसी के अनुसार चलते हैं-आचरण करते हैं।"२ इसलिए केवलज्ञानी वीतराग पुरुष १. पंचहिं ठाणेहिं केवली उदिण्णे परिसहोवसग्गे समं सहेज्जा जाव (खमेज्जा, तितिक्खेज्जा) अहियासेज्जा, तं.-(१) खित्तचित्ते (२) दित्तचित्ते (३) जक्खाइढे खलु अयं पुरिसे। तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा तहेव जाव (अवहसति वा, णिच्छोडेति वा, बंधेति वा, संभंति वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं वा णेति, वत्थं वा पडिग्गहं वा, कंबलं वा पायपुंछणमच्छिंदति वा विच्छिंदति वा भिंदति वा) अवहरति वा। (४) ममं च तब्भववेयणिज्जे कम्मे उदिण्णे भवति। तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा जाव अवहरति वा। (५) ममं च णं सम्म सहमाणं खममाणं तितिक्खमाणं अहियासेमाणं पासेत्ता बहवे अण्णे छउमत्था समणा णिग्गंथा उदिण्णे-उदिण्णे परिसहोवसग्गे एवं सम्मं सहिस्संति खमिस्संति तितिक्खसंति अहियासिस्संति वा। -स्थानांग, स्था. ५, उ. १, सू. ७४ २. यद्यदाचरतिश्रेष्ठस्तदत्तदेवेतरोजनः। स यत् प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते। . ___ -भगवद्गीता ३/२१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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