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________________ ॐ निर्जरा के विविध स्रोत ॐ २४५ 8 इस प्रकार प्रशस्त मन-वचन-काया से उक्त सुमनोरथ करते हुए श्रमणोपासव महानिर्जरा और महापर्यवसान वाले होते हैं।' वाचनारूप स्वाध्याय से महानिर्जरा और महापर्यवसान क्यों और कैसे ? 'उत्तराध्ययनसूत्र' में कहा गया है-“वाचना (शास्त्र या श्रुत को स्वयं पढ़ना अथवा शास्त्र की वाचना देना, पढ़ाना अथवा गुरु या श्रुतधर से शास्त्राध्ययन करना) से जीव कर्मों की निर्जरा करता है। शास्त्र की बार-बार अनुवर्तना (आवृत्ति) होने, (शास्त्र का सदैव पठन-पाठन होने) से शास्त्राध्येता श्रुत की आशातना से दूर रहता है। इस प्रकार श्रुताध्ययन प्रणाली का व्यवच्छेद न होने से एवं श्रुत की अनाशातना में प्रवृत्त जीव तीर्थधर्म (प्रवचनधर्म = स्वाध्याय करना, गणधरधर्म = शास्त्र परम्परा को अविच्छिन्न रखना तथा श्रमणसंघधर्म = शास्त्रोक्त आचारधर्म) का अवलम्बन (आश्रय) लेता है। फलतः श्रुतरूप तीर्थधर्म के स्वाध्यायरूप धर्म के आश्रित होता हुआ जीव महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। सकामनिर्जरा के विभिन्न स्रोत पूर्व पृष्ठों में सम्यग्ज्ञानपूर्वक तपश्चरण, परीषह-उपसर्ग-सहन, गुप्तिसमितिपालन, क्षमादि दशविध धर्मों तथा व्रतों-महाव्रतों के आचरण, त्याग, नियम, प्रत्याख्यानचारित्र, संवर आदि के विधिवत् आचरण से सकामनिर्जरा के अल्पनिर्जरा, महानिर्जरा आदि के रूप में विविध शास्त्रीय प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं। १. .(क) तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तं.-(१) कयाणं अहं अप्पं वा बहुयं वा सुयं. अहिज्जिस्सामि? (२) कयाणं अहं एकल्लविहारपडिमं उवसंपजित्ताणं विहरिस्सामि? (३) कयाणं अहं अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणा झूसणा-झूसिते भत्त-पाण-पडियाइक्खित्ते पाओवगते काले अवकंखमाणे विहरिस्सामि? (ख) तिहिं ठाणेहिं समणोवासए महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तं.-(१) कयाणं अहं अप्पं वा बहुं वा परिग्गहं परिच्चइस्सामि? (२) कयाणं अहं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्सामि? (३) कयाणं अहं अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणा-झूसणाझूसिते अत्तपाण पडियाक्खिते पाओवगते कालं अवकंखमाणे विहरिस्सामि? एवं समणसा सवयसा सकायसा पागडेमाणे समणे समणोवासए य महाणिज्जरे महापज्जवासणे भवति। -स्थानांग, स्था. ३, उ. ४, सू. ४९६-४९७ २. वायगाए णं निज्जरं जणयइ। सुयस्स य अणुसज्जणाए अणासायणाए वट्टए। सुयस्स अणुसज्जणाए अणासायणाए वट्टमाणे तित्थधम्म अवलंबइ। तित्थधम्मं अवलंबमाणे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ। -उत्तराध्ययन, अ. २९, सू. १९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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