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________________ ® २४४ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ® भोग समर्थ अधोऽवधिक (नियतक्षेत्र विषयक अवधिज्ञानी), उत्कृष्ट (परम), अवधिज्ञानी (परमावधिक), चरमशरीरी तथा केवलज्ञानी भी तीनों भोगों से, स्वेच्छा से, मुमुक्षु बनकर भोगों का सर्वथा परित्याग करते हैं, वे भोगत्यागी मानव (सिद्धान्तानुसार) कर्मों की महानिर्जरा करते हैं, मुक्तिरूप (सर्वकर्मान्त, संसारान्त या सर्वकर्मों की मुक्तिरूप) महाफल प्राप्त करते हैं अथवा जो छद्मस्थ हैं, वे उक्त महानिर्जरा के साथ ही कुछ कर्म शेष रहने से उच्च देवलोक प्राप्त करते हैं।' प्रशस्त त्रियोग से तीन-तीन मनोरथ से महानिर्जरा 'स्थानांगसूत्र' के अनुसार-तीन (मनोरथात्मक) कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महान् पर्यवसान वाला होता है; जैसे-(१) कब मैं अल्प या बहुत श्रुत (शास्त्र) का अध्ययन करूँगा? (२) कब मैं (अष्ट गुणों से युक्त होकर) (उच्च अध्यात्म-साधना के लिए) एकल विहार-प्रतिमा का अंगीकार करूँगा? (३) कब मैं अपश्चिम (अन्तिम समय की) मारणान्तिक संथारा की आराधना से युक्त होकर, भक्त-पान का प्रत्याख्यान (परित्याग) कर पादोपगमन संथारा अंगीकार करके मृत्यु की (अथवा इहलोक, परलोक जीवित-मरणादि की) आकांक्षा-आशंसा नहीं करता हुआ विचरूँगा? इस प्रकार प्रशस्त मन, वचन, काया से उक्त मंगलमयी श्रेयस्करी भावना करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा व महापर्यवसान वाला होता है। तीन कारणों से श्रमणोपासक महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है (१) कब मैं अल्प या बहुत परिग्रह (सजीव-निर्जीव पदार्थ के प्रति ममता-मूर्छा) का त्याग करूँगा? ___ (२) कब मैं (द्रव्यभाव से) मुण्डित होकर आगारधर्म से अनगारधर्म में प्रव्रजित होऊँगा? (३) कब मैं अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना से युक्त होकर, भक्त-पान का त्याग कर, स्वेच्छा से पादोपगमन संथारा स्वीकार करके मरण की आकांक्षा नहीं करता हुआ विचरूँगा? १. (क) छउमत्थे मणुस्से जे भविए अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जित्तए, से खीणभोगी, नो पभू उट्ठाणेणं कम्मेण बलेणं वीरिएणं पुरिसक्कार-परक्कमेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए; (परन्तु) पभू णं से उट्ठाणेण वि जाव पुरिसक्कार-परक्कमेण वि अन्नयराई विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए; तम्हा (एरिसो) भोगीभोगे परिच्चयमाणे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति। __ -भगवतीसूत्र, श. ७, उ. ७, सू. २० (ख) एवं आहोहिए, परमाहोहिए वि जहा छउमत्थे मणुस्से जाव महापज्जवसाणे भवति। केवली मणुस्से वि जहा परमाहोहिए जाव महापज्जवसाणे भवति। -वही, श. ६, उ. ७, सू. २१-२३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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