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________________ ॐ २१२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 जाने में तथा समुद्रपार रहे हुए रूपों (दृश्यों या पदार्थों) को देखने में अथवा देवलोक में जाने में या देवलोक में रहे हुए रूपों (पदार्थों) को देखने में समर्थ नहीं हैं; वे समर्थ (संज्ञी = समनस्क) होते हुए भी प्रकामनिकरण वेदना को वेदते हैं।" तात्पर्य यह है कि ज्ञान-शक्ति, इच्छा-शक्ति एवं विचार-शक्ति से युक्त (समर्थ) होते हुए भी मिथ्यादृष्टि एवं मिथ्याज्ञान के कारण उसमें उपयोगपूर्वक प्रवृत्त होने (प्राप्त करने) का सामर्थ्य न होने से वे प्रकामनिकरण (मात्र तीव्र इच्छा = कामनापूर्वक) वेदना वेदते हैं। ये (पूर्वोक्त) तीनों ही प्रकार अकामनिर्जरा के हैं।' जिसकी निर्जरा प्रशस्त, वही श्रेयस्कर है निष्कर्ष यह है कि जीव चाहे महावेदन वाला हो या अल्पवेदन वाला, जिसकी निर्जरा प्रशस्त हो वही श्रेयस्कर है। वेदन के दौरान दृष्टि सम्यक हो, सुख-दुःख, राग-द्वेष या कषाय से रहित होकर समभावपूर्वक भोगा जाए तो कर्मों की निर्जरा कर्ममुक्तिलक्षी सकाम (स्वेच्छापूर्वक) निर्जरा होती है; जो मोक्षलक्षी तथा आत्म-शुद्धिलक्षी होती है। अन्यथा मिथ्यादृष्टि एवं मिथ्याज्ञान के वश होकर मूढ़ता-अज्ञान और कप्राय से आविष्ट होकर कर्मफल भोगा जाए या कर्मक्षय किया जाए तो उससे पुराने बँधे हुए अमुक कर्म बहुत कर्मक्षय होंगे, साथ ही नये कर्म और बँध जायेंगे। १. (क) जे इमे भंते ! असण्णिणो पाणा, तं जहा-पुढविकाइया जाव वणस्सतिकाइया, छट्ठा य एगइया तसा, एतेणं अंधा, मूढा, तमं पविट्ठा, तमपडल-मोहजाल-पलिच्छन्ना अकाम-निकरणं वेदणं वेदेंतीति वत्तव् सिया ? हंता, गोयमा ! वत्तव्वं सिया। (ख) अस्थि णं भंते ! पभू वि अकाम-निकरणं वेदणं वेदेति ? हंता गोयमा ! अत्थि। कहं णं भंते ! पभू वि अकाम-निकरणं वेदणं वेदेति? गोयमा ! जे णं णो पभू विणा पदीवेणं अंधकारंसि रूवं पासित्तए पुरतो रूवाइं अणिज्झाइत्ता णं पासित्तए मग्गतो रूवाइं अणवयक्खित्ता णं पासित्तए पासतो रूवाइं अणवलोएत्ता णं पासित्तए उड्ढं रूवाई अहो रूवाई अणालोएत्ता णं पासित्तए। एस णं गोयमा पभू वि अकाम-निकरणं वेदणं वेदेति। अस्थि णं भंते ! पभू वि पकाम-निकरणं वेदणं वेदेति ? हंता, अत्थि। कहं णं भंते ! पभू वि पकाम-निकरणं वेयणं वेदेति ? गोयमा ! जे णं नो पभू समुदस्स पारं गमित्तए, जे णं नो पभू समुदस्स पारगताई रूवाइं पासित्तए; जे णं नो पभू देवलोगं गमित्तए, जे णं नो पभू देवलोगगताइं रूवाइं पासित्तए; एस णं गोयमा ! पभू वि पकाम-निकरणं वेयणं वेदेति। -भगवतीसूत्र, श. ७, उ. ७, सू. २४-२८ (घ) देखें-व्याख्याप्रज्ञप्ति, खण्ड २, श. ७, उ. ७ की व्याख्या (श्री आ. प्र. समिति, ब्यावर), पृ. १७ २. देखें-भगवतीसूत्र, श. ६, उ. १, सू. ४ का यह निष्कर्षात्मक पाठ- महावेदणस्स अप्पवेदणस्स य से सेए जे पसत्थ-निज्जराए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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