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________________ ॐ २०८ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 ___ नारकों, देवों, तिर्यंचों और मनुष्यों के उस-उस गति में उत्पन्न होने के पश्चात् जो एकान्त सुख, एकान्त दुःख तथा कभी सुख-कभी दुःख आदि का विधान किया गया है, इसके पीछे प्रमुख कारण का उल्लेख करते हुए ‘भगवतीसूत्र' में बताया गया है-पापकर्म, जो किया गया है, किया जाता है या किया जाएगा, वह सब दुःखरूप (दुखोत्पादक) होता है। किन्तु उन पापकर्मों की यदि सकामनिर्जरा हो तो वह मोक्षसुखरूप होती है और अकामनिर्जरा हो तो वह सांसारिक सुखरूप होती जीव महाकर्मादि के कारण दुःखी और अल्पकर्मादि के कारण सुखी होते हैं कर्मशास्त्र में कर्मों की दीर्घकालिक स्थिति वाले जीव को महाकर्म वाला, कायिकी आदि क्रियाएँ प्रबल हों तो महाक्रिया वाला, कर्मबन्ध या कर्माम्रव के हेतुभूत मिथ्यात्व आदि प्रचुर एवं गाढ़ हों तो महास्रव वाला तथा महापीड़ा वाले को महावेदना वाला कहा गया है। इसके विपरीत कर्म, क्रिया, आस्रव एवं पीड़ा शिथिलतर, अल्पस्थितिक, अप्रचुर एवं अगाढ़ हों तो उसे क्रमशः अल्पकर्म वाला, अल्पक्रिया वाला, अल्पआस्रव वाला एवं अल्पपीड़ा वाला कहा जाता है। इस दृष्टि से गाढ़ बन्धन से बद्ध कर्मों की निर्जरा अल्प एवं शिथिलबन्धन से बद्ध कर्मों की निर्जरा अधिक होती है। इन्हीं चार बातों को लेकर 'भगवतीसूत्र' में बन्ध के कारण दुःख और निर्जरा के कारण सुख के कारणों पर प्रकाश डाला गया है जो जीव महाकर्म, महाक्रिया, महाआस्रव और महावेदना से युक्त होता है, उसके चारों ओर से, सभी दिशाओं से या प्रदेशों से कर्मपुद्गल संकलितरूप से बँधते हैं; बन्धनरूप से चय को प्राप्त होते हैं तथा कर्मपुद्गलों की रचना (निषेक) रूप से उपचय को प्राप्त होते हैं अथवा वे कर्मपुद्गल बंधनरूप में बँधते हैं, निधत्तरूप में उनका चय होता है और निकाचितरूप से उनका उपचय होता है। ऐसे महाकर्मा का जीव (आत्मा) सदैव दुरूपता, दुर्वर्णता, दुर्गन्धता, दुःरसता, दुःस्पर्शता, अनिष्टता, अकान्तता, अप्रियता, अशुभता, अमनोज्ञता, अमनोगमता, अनिच्छनीयता से तथा अनभिध्यितता (प्राप्त करने हेतु अलोभता) तथा ऊर्ध्वगामिता नहीं, किन्तु अधोगामिता से, सुखरूप में नहीं, दुःखरूप में ही बार-बार परिणत होता है। १. (प्र.) नेरइयाणं (जाव वेमाणियाणं) भंते ! पावे कम्मे, जे य कडे, जे य कञ्जति. जे य कज्जिस्सति सव्वे से दुक्खे? जे निज्जीण्णे से णं सुहे ? (उ.) हंता गोयमा ! नेरइयाणं (एवं जाव वेमाणियाणं) पावे कम्मे जाव सुहे। -भगवतीसूत्र, श. ८, उ. ८, सू. ३-४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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