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________________ * १९६ कर्मविज्ञान : भाग ७ ललकारा, जिससे वे भाग गये। फिर श्रीमती यादव सभी भयभीत बारातियों को बस से उतारकर सुरक्षित अपने घर ले गईं। बस सहित सारा सामान मँगवाया। सबको अपने घर में ठहराया, सबके भोजन-पानी का प्रबन्ध किया। रात्रि में सबके सोने का सुन्दर इन्तजाम किया । सबने श्रीमती यादव की इस उदारता का आभार माना । इस प्रकार श्रीमती यादव ने लयनपुण्य और शयनपुण्य दोनों पुण्य अर्जित किये। इसी प्रकार अनेक शय्याओं वाला चिकित्सालय खोलना, नेत्रदानयज्ञ आदि के माध्यम से नेत्र-रोगियों के रहने-सोने आदि का प्रबन्ध करना भी शयनपुण्य के अन्तर्गत है । (५) वस्त्रपुण्य-सर्दी आदि के कारण ठिठुरते हुए या फटेहाल लोगों को निःस्वार्थभाव से वस्त्र वितरण करना । श्री मफतलालभाई आदि कई सेवाभावी सज्जन शीतकाल में प्रति वर्ष अपनी ओर से गरीबों एवं पीड़ितों को वस्त्र वितरण करके वस्त्रपुण्य अर्जित करते हैं। सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' भी अपना वस्त्र उतारकर सर्दी से ठिठुरते हुए व्यक्तियों को दे देते थे। (६) मनः पुण्य - मन से, शुभ भावनाओं से पुण्य उपार्जित करना मनपुण्य का आशय है। किसी ग्राम, नगर, राष्ट्र तथा विश्व में शान्ति, समता, अमनचैन स्थापित करने के लिए, कल्याण के लिए, पाप से मुक्त होकर धर्ममार्ग पर आरूढ़ होने के लिए तथा किसी व्यक्ति को सन्मार्ग पर लाने, दूसरों के तन-मन के आरोग्य के लिए शुभ भावना करना तथा 'सर्वेभवन्तु सुखिनः', 'शिवमस्तु सर्वजगतः' इत्यादि शुभ भावनामूलक श्लोकों से शुभ चिन्तन करना मनःपुण्य है। परमात्म प्रार्थना द्वारा भी दुःखित- पीड़ितों का शुभ भावनाओं से दुःख निवारण करना भी मनःपुण्य है। अमेरिका के केन्सास सिटी में डॉ. फिल्मौर द्वारा स्थापित एक प्रार्थना संघ है, जिसमें सामूहिक प्रार्थना द्वारा हजारों लोगों के निःस्वार्थभाव से दुःख निवारण किये जाते हैं । २ (७) वचनपुण्य - अपनी वाणी से भगवन्तों, महापुरुषों और महान् आत्माओं के गुणगान, स्तवस्तोत्र - स्तुतिपाठ करना, नामस्मरण करना, दूसरों को सत्परामर्श तथा सन्मार्गदर्शन देना, व्यसन मुक्ति की, अहिंसा - सत्यादि धर्मपालन की धर्मलक्षी न्याय-नीति का पालन करने की प्रेरणा देना वचनपुण्य है। मुंजाल नामक श्रावक गुजरात के महामंत्री तेजपाल का गुमाश्ता था। महामंत्री कुछ भी दानपुण्य नहीं करते थे। यह देख एक दिन महामंत्री से कहा- “ सेठ जी ! आप वासी भोजन करते हैं । " इस पर पहले तो वे चौंके, कुछ रुष्ट भी हुए, फिर इस पर सोचते-सोचते उन्हें इस कथन का रहस्य ज्ञात हुआ कि “गुमाश्ता ठीक ही तो कहता है । मैंने पूर्व-कृत पुण्य के फलस्वरूप ऋद्धि-समृद्धि और ऐश्वर्य पाया, किन्तु अब कुछ भी नया पुण्य या 9. 'नवभारत टाइम्स' (बम्बई), दि. ३-३-९५ के अंक से संक्षिप्त २. 'कल्याण', अप्रेल १९५७ के अंक से संक्षिप्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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