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________________ * योग्य क्षेत्र में पुण्य का बीजारोपण १८३ श्रमणोपासक को किस फल की प्राप्ति होती है ? ( उ ) गौतम ! उसके बहुत निर्जरा होती है और अल्पतर पापकर्म का बन्ध होता है । " १ दोनों सूत्रपाठों को नवविध पुण्यपरक मानना भ्रान्ति है : क्यों और कैसे ? इन दोनों सूत्रपाठों में निर्जरा के सम्बन्ध में प्रश्न पूछा गया है और उत्तर भी निर्जरापरक दिया गया है। इन दोनों पाठों में पुण्य का तो नाम ही नहीं है कि तथारूप श्रमण-माहन को देने से नौ प्रकार के पुण्य का उपार्जन होता है। दूसरी बात- ये दोनों प्रश्न 'श्रमणोपासक' के लिए हैं, अन्य मानवों तथा जीवों के लिए नहीं और वह भी ‘अन्नपुण्णे' और 'पाणपुण्णे' (आहार देने के पुण्य) के सम्बन्ध में है, अन्य पुण्यों के उपार्जन का जिक्र ही नहीं है मूलपाठ में। तीसरी बात - यहाँ तथारूप 'श्रमण' के साथ-साथ 'माहन' शब्द का प्रयोग भी किया गया है। यदि वे केवल ‘श्रमण' को आहारादि देने से ही नौ प्रकार का पुण्यबन्ध मानते हैं, तो 'माहन' को देने से पुण्यबन्ध का निषेध सिद्ध होगा, जो भगवद्-वचन के विरुद्ध प्ररूपणा होगी और 'माहन' शब्द व प्रतिमाधारी श्रावक तथा व्रतबद्ध श्रमणोपासक अर्थ में आगमों में तथा उनकी टीकाओं तथा ग्रन्थों में प्रयुक्त है। ऐसी स्थिति में आपकी यह प्ररूपणा गलत सिद्ध हो जाती है कि केवल तथारूप श्रमण को देने आदि से ही नौ प्रकार का पुण्य होता है। फिर यदि शब्दों को पकड़कर चलते हैं तो यहाँ ‘समणी' और ‘माहणी' शब्द नहीं हैं, उनको आहारादि देने से निर्जरा या पुण्य का लाभ होगा या नहीं ?२ १. (क) (प्र.) समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएसणिज्जेणं असणपाण- खाइम साइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कर्ज्जत ? ( उ ) गोयमा ! एगंतसो से निज्जरा कज्जइ । नत्थि य से पावेकम्मे कज्जति । (ख) (प्र.) समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असण-पाण. जाव पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ ? (उ.) गोयमा ! बहुतरिया से निज्जरा कज्जइ, अप्पतराए से पावे कम्मे कज्जइ । - भगवतीसूत्र, श. ८, उ. ६, सू. १-२ २. (क) देखें - भगवतीसूत्र, श. ५, उ. ६ तथा श. २, उ. ५ में एवं स्थानांग, स्था. ३, उ. १ 'माहण' को 'श्रावक' कहा गया है। में (ख) 'माहन' इत्येवमादिशति स्वयं स्थूल - प्राणातिपातादि-निवृत्तत्वाद् यः स माहनः । अथवा ब्राह्मणो-ब्रह्मचर्यस्य देशतः सद्भावात् ब्राह्मणो देशविरतः । - भगवती, श. १, उ. ७ की टीका (ग) अथवा श्रमणः साधुर्मानः श्रावकः । देशमूल गुणयुक्तः इति भावः । (घ) 'प्रश्नोत्तर - मोहनमाला' से भाव ग्रहण, पृ. १५८-१५९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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