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________________ * १७८ * कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ बदले अन्य सात्त्विक शाकाहार की आदत डालने हेतु कोई श्रावक शुभ भाव से सात्त्विक खुराक देता है, उससे उसे पुण्यबन्ध होना सम्भव है। . जैसे-जयपुर के एक समय के दीवान श्री चम्पालाल जी जैन पवित्र गृहस्थधर्मी श्रावक थे। वे अहिंसा का अपनी श्रावक मर्यादा के अनुसार पालन करते थे। किसी राज्याधिकारी ने जयपुर के उस समय के राजा से उनकी चुगली खाई। दीवान जी तो कोरी अहिंसा की बातें करते हैं। क्या वे हिंसक सिंह को अहिंसक खुराक देकर सन्तुष्ट कर सकते हैं ? जयपुर-नरेश ने दूसरे ही दिन जैन दीवान. जी को आदेश दिया-"दीवान जी ! कल आपको सिंह को उसकी खुराक खिलाकर सन्तुष्ट करना है।" चम्पालाल जी ने कुछ क्षण सोचा और फिर मन ही मन निश्चय करके कहा"हाँ, महाराज ! ऐसा ही होगा।" उन्होंने एक थाल में मिठाई भरी और उस पर एक स्वच्छ कपड़ा ढका। फिर स्वयं उघाड़े वदन उस थाल को लेकर सिंह के पिंजरे के पास पहँच गये। फिर उन्होंने नौ बार नवकार महामन्त्र का स्मरण करके सिंह के पिंजरे को खोला और मिठाई के थाल को उसके सामने रखकर उससे कहा-“भाई सिंह ! तुम्हारी भूख मिटाने के लिए मेरे पास ये मिठाइयाँ हैं, इन्हें खा लो और तुम्हें : माँस ही चाहिये तो मैं सामने खड़ा हूँ, मेरा माँस खा लो, मैं दूसरे प्राणी का माँस तुम्हें नहीं दे सकता।" सबके आश्चर्य के बीच सिंह ने माँस के बदले मिठाइयाँ खाकर अपनी भूख मिटाई।" इसी प्रकार महात्मा गांधी जी ने भी एक अंग्रेज के लड़कों को माँसाहार छुड़ाकर सात्त्विक आहार की ओर मोड़ा था।२ क्या ये दोनों पुण्यबन्ध के कार्य नहीं थे? (४) किसी असंयत, अविरत प्राणी या मानव को दुःखित, पीड़ित, अनाथ, असहाय या आश्रित देखकर कोई श्रमणोपासक या सम्यग्दृष्टि श्रावक उस पर अनुकम्पाभाव लाता है, उसे आहारादि से यथायोग्य सहायता देता है। इस वृत्ति-प्रवृत्ति से मनपुण्य तथा अन्नपुण्य आदि का बन्ध होता ही है। सम्यग्दृष्टि और व्रती श्रावक भी स्वाश्रित जीवों या दुःखित पीड़ितों की सहायता से पुण्य बाँधता है सम्यग्दृष्टि या व्रती श्रावक भी अपने आश्रित पशुओं या मानवों को आहारादि देता ही है; वे कोई संयत, विरत या समस्त पापकर्मों के त्यागी नहीं होते। अगर वे उन्हें आहार नहीं देते हैं तो उन्हें 'भत्तपाण-वुच्छेए' (आहार-पानी का विच्छेद) नामक प्रथमव्रत का अतिचार (दोष) लगता है। आनन्द, कामदेव आदि व्रतबद्ध श्रावकों के १. 'प्रश्नोत्तर-मोहनमाला, भा. ३' से भाव ग्रहण, पृ. १४६ २. (क) “माटी और सोना' (नेमीचन्द पटोरिया) से संक्षिप्त (ख) 'हरिजनसेवक' में प्रकाशित घटना से भाव ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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