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________________ ® १७४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ® भाव उत्पन्न हों कि मैं इस बकरे, भैंसे या अन्य प्राणी को इस पाशविक (तिर्यंचयोनि में मिलने वाले) दुःख से मुक्त करने तथा स्वर्ग प्राप्त कराने के लिए इसकी बलि (वध) दे रहा हूँ अथवा यह वृद्धावस्था या अन्य पीड़ा से पीड़ित है, कष्ट पा रहा है, इसे कष्ट से छुड़ा रहा हूँ। ये भाव शुभ नहीं कहे जा सकते। साम्प्रदायिक परम्परा, अन्ध-विश्वास या देवी-देवों अथवा भगवान की तथाकथित अन्ध-भक्ति के नाम पर या अपनी किसी स्वार्थलालसा या मोहवश किसी भी प्राणी का वध या हत्या करना, वध चाहना, दुःख या पीड़ा पहुँचाना घोर अपराध है, पाप है, अशुभ कर्मबन्धजनक है, वैर-परम्परा बढ़ाने वाला कृत्य है। जहाँ अपने माने हुए देव, भगवान धर्म-सम्प्रदाय या तथाकथित गुरु की अन्ध-भक्ति के नाम से दिये गये किसी प्राणी के बलिदान या वध को कई लोग देव-गुरु-धर्म-सम्प्रदायगत तथाकथित भक्ति का शुभ भावों में समावेश करते हैं, वे कहते हैं कि हमारा उक्त प्राणी के प्रति द्वेष, वैर या क्रोध नहीं है, किन्तु हम तथाकथित परम्परावश ऐसा करते हैं, किन्तु यह हिंसापूर्ण एवं क्रूरतापूर्ण घोर कृत्य है, परिणामों में निर्दयता, क्रूरता एवं मिथ्यात्व (मिथ्यादृष्टि) है, वहाँ शुभ भावों को जरा भी अवकाश नहीं है। वह सरासर पाप है, पापकर्मबन्ध है, पुण्य नहीं है। चिकित्सक और वधक का कृत्य एक-सा होने पर भी शुभ-अशुभ भावों के कारण पुण्य-पाप एक चिकित्सक रोगी के अंगों की चीरफाड़ करता है, उसके विषाक्त या दूषित अंग को काटता है, किन्तु उसके पीछे उसकी शुभ भावना रोगी को रोगमुक्त-स्वस्थ करने की है, उसका जीवन बचाने की है। इसलिए डॉक्टर का कृत्य बाहर से देखने वाले को वधक के समान घातक-सा लगने पर भी शुभ भावों से युक्त होने से पुण्यजनक है। वस्तु या पात्र मुख्य नहीं, दाता के भाव मुख्य हैं : कुछ ज्वलन्त उदाहरण __ अगर पुण्य-पाप शुभ-अशुभ भावों पर आधारित न होता, केवल वस्तु या व्यक्ति पर आधारित होता तो नागश्री ब्राह्मणी ने धर्मरुचि अनगार जैसे उत्कष्टपात्र को घृतादि से संस्कारित साग भिक्षा में दान दिया था, उसे महापुण्य या निर्जरा होनी चाहिए थी, परन्तु निर्जरा तो दूर रही, साधारण पुण्य भी नहीं हुआ, उसके भाव अशुभ थे। उसने उकरड़ी पर डालने के समान मुनि के पात्र में डालने का उपक्रम किया था। ऐसे अशुभ भावों के कारण पापकर्म का बन्ध किया। फलतः मरकर छठी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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