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________________ * १७२ 8 कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ पात्र-अपात्र का विवेक अवश्य करना चाहिए पात्र-दानदाता को पात्र का विवेक अवश्य करना चाहिए। अन्यथा पात्रापात्र का विवेक किये बिना किसी को कुछ भी दे डालने से उतना लाभ नहीं होगा, सामान्य पात्रों की अपेक्षा विशिष्ट पात्रों को दान देने का सुफल अधिक होता है। सामान्यतया अनुकम्पापात्र, मध्यमपात्र और उत्कृष्टपात्र ये तीन दान के पात्र हैं। अनुकम्पापात्र में अभाव, बाढ़ आदि संकट, रोग, दुःख आदि से पीड़ित व्यक्ति तथा संस्थाएँ भी तथा सामूहिक पात्र भी समाविष्ट हैं। मध्यमपात्र में अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत श्रावक तथा मार्गानुसारी धर्मलक्षी नीतिजीवी व्रतबद्ध लोकसेवक या जन-संगठन आदि का समावेश हो जाता है और उत्कृष्टपात्र में महाव्रती साधु, श्रमण, श्रमणी, मुनि, आर्यिका आदि त्यागीजनों तथा उनकी संस्थाओं (संघों) का समावेश है। देयवस्तु तथा विधि का विवेक भी दान में अनिवार्य देयद्रव्य-देयवस्तु पात्रों के अनुरूप हो। जो भी वस्तु दी जाये, वह लेने वाले के गुणों को बढ़ाने वाली हो, उसकी जीवन-यात्रा में सहकारी या उपयोगी हो। ऐसी वस्तु न दी जाये, जो उसकी भूमिका के अनुरूप न हो, कल्पनीय या एषणीय न हो अथवा जिसकी उसे जरूरत न हो। देयद्रव्य शुद्ध हो, निरामिष हो, अभक्ष्य न हो, तामस या राजस न हो। विधि-दान के विषय में दान देने की विधि (Way या Method), पद्धति या तरीका भी विचारणीय होता है। देयवस्तु शुद्ध हो, पात्र के अनुरूप भी हो, किन्तु अविधिपूर्वक या अहंकार, ईर्ष्या, अश्रद्धा अथवा लौकिक फलाकांक्षा से दी गई हो तो वह दान शुद्ध नहीं कहलाता है। इसके अतिरिक्त देश, काल, पात्र, श्रद्धा और सत्कार आदि बातें भी विधि में समाविष्ट हैं। जिसको भी दिया जाये, निःस्वार्थभाव से, उच्चभाव और आदर के साथ अहंकारादि से रहित होकर दिया जाये तो वह विधि उत्तम कहलाती है। दान में उपर्युक्त विवेक से अफल, सुफल का विचार उत्कृष्ट सुपात्र या मध्यम सुपात्र को दान देते समय दान के उपर्युक्त चारों या पाँचों अंगों की तथा तीन करण, तीन योग की शुद्धि का ध्यान रखा जाए तो दान का फल भी पुण्योपार्जन के अलावा शुभ योग-संवर और निर्जरा का लाभ भी हो सकता है। 'भगवद्गीता' में इसी अपेक्षा से दान के सात्त्विक, राजस और तामस, ये तीन प्रकार बताये हैं। १. दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे। देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥२०॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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