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________________ ॐ योग्य क्षेत्र में पुण्य का बीजारोपण ॐ १७१ ® बनता ही है, उससे आगे बढ़कर शुभ योग-संवर, शुद्धोपयोग संवर और निर्जरा का कारण भी बन सकता है। दान के चार अंग ये हैं-(१) दाता स्वयं, (२) द्रव्य = दी जाने वाली वस्तु, (३) दिये जाने (दान देने की विधि या तरीका, तथा (४) पात्र = दान लेने वाला पात्र = आदाता। इन चारों के आधार पर ही दान की क्वांटिटी की अपेक्षा क्वालिटी (गुणवत्ता) का तारतम्य (न्यूनाधिकता) अवलम्बित है। 'भगवतीसूत्र' में भी दान की विशेषता के विषय में कहा गया है“द्रव्य-शुद्धि से, दाता की शुद्धता से, तपस्वी की शुद्धता से, त्रिकरण-शुद्धि से, पात्र-शुद्धि से, त्रिविध (मन-वचन-काया) रूप से, त्रिकरण (करना, कराना, अनुमोदन) की शुद्धता से दान में विशेषता (गुणवत्ता) होती है।" दान भी पुण्यबन्ध का एक विशिष्ट प्रकार है। इसलिए दान की पूर्ण सफलता के लिए मुख्यतया दाता को बहुत सावधानी रखनी चाहिए, क्योंकि वही दान का महत्त्वपूर्ण अंग है, वही दान का फलभोक्ता है। श्रमणोपासक के बारहवें व्रत का नाम अतिथि (यथा) संविभागवत है। उसमें भी पाँच (दोषों) अतिचारों से दूर रहने का निर्देश हैसचित्तनिक्षेपणता, सचित्तपिधानता, परव्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रम। ये पाँच अतिचार सर्वविरत श्रमण को दान देने से बचने या दान न देने के बहाने की अपेक्षा से है। इसलिए सम्यग्दृष्टि एवं शुद्धोपलक्षी दाता के लिए आवश्यक है कि किसी को दान देते समय उसके मन-वचन-काय शुद्ध हों, दान में अहंकार और यश आदि की भावना न हो। दान देते समय, देने से पहले और पीछे भी आदाता के प्रति किसी प्रकार की स्वार्थभावना, ईर्ष्या, अहंभावना, कृपणता या आसक्ति आदि दुर्भावना न आये। पात्र का यथायोग्य सत्कार-सम्मान किया जाये। काया से भी पात्र के प्रति विनम्रता प्रदर्शित की जाये। मध्यम और उत्कृष्टपात्र को भक्ति-बहुमानपूर्वक दान दे। मन में यही सोचे कि आज मेरा अहोभाग्य है कि मैं योग्य पात्ररूप व्यक्ति या संस्था को कुछ देकर धन्य बना। मुझे इन्होंने अपनी वस्तु का व्युत्सर्जन करने का अवसर दिया। दान लेकर मुझे कृतार्थ किया। वस्तुतः इसमें मेरा अपना क्या है? समाज से ही यह सब प्राप्त हुआ है, समाज को या समाज के अमुक पात्रों को अर्पित करने में मुझे प्रसन्नता है। ऐसे चढ़ते भावों से दान देने का पुण्य फल उत्कृष्ट होता है, उत्कृष्टभाव आने पर संवर और निर्जरा को भी अवकाश है। १. (क) अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥३३॥ (ख) विधि-द्रव्य-दातृ-पात्र-विशेषात्तदविशेषः॥३४॥ -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ७, सू. ३३-३४ (ग) दव्वसुद्धणं दायगसुद्धणं तवस्सि-विसुद्धेणं तिकरणसुद्धेणं पडिगाहसुद्धणं तिविहेणं - तिकरणसुद्धेण दाणेणं। -भगवतीसूत्र, श. १५, सू. ५४१ (घ) 'तत्त्वार्थसूत्र विवेचन' (उपाध्याय श्री केवल मुनि जी) से भाव ग्रहण, पृ. ३४७-३४८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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