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________________ ॐ योग्य क्षेत्र में पुण्य का बीजारोपण ® १६९ ॐ पुण्य बीज बोते समय भी पात्रता और योग्यता का विचार करना अनिवार्य बीज बोते समय भी किसान जैसे जमीन की योग्यता-पात्रता देखकर बीज बोता है, वैसे ही पुण्य बीज बोने वाले व्यक्ति को भी दान, पुण्य, परोपकार या परार्थ कर्म करते समय अपनी तथा जिसके लिए यह किया जा रहा है, उसकी पात्रता और योग्यता भी देखनी जरूरी है। अर्थात् अन्नादि प्रदान या उनका प्रयोग व विसर्जन करते समय जिसे अन्नादि का लाभ मिलना है उसकी पात्रता और योग्यता का भी विचार करना जरूरी है। अनुकम्पापात्र, मध्यम सुपात्र और उत्कृष्ट सुपात्र : कौन-कौन, किस अपेक्षा से ? आशय यह है कि जिसको वह अन्न, पान, लयन, शयन आदि प्रदान करना चाहता है, वह अपंगपन; अंगविकलता अथवा किसी दुःसाध्य रोगादि पीड़ा से या बाढ़, भूकम्प, दुष्काल, सूखा आदि प्राकृतिक प्रकोपों से पीड़ित है या अभाव-पीड़ित है अथवा किसी अकस्मात् (दुर्घटना) के कारण संकट में पड़ा है, भूख-प्यास से अत्यन्त व्याकुल है, उसके प्राण खतरे में पड़े हैं, तो ऐसा व्यक्ति अनुकम्पापात्र है या पात्र है। यदि वह वेश्या, कसाई, चाण्डाल है या अन्य पापकर्मजीवी है, परन्तु मरणासन्न है, घायल है, पीड़ित है या माँसाहारी, मद्यपायी आदि है, दुःसाध्य व्याधि-पीड़ित है तो वह तात्कालिक अनुकम्पापात्र है। सम्भव है, बाद में समझाने पर वह पापकर्म छोड़कर शुभ मार्ग पर आ जाये। अथवा यदि वह सम्यग्दृष्टि, मार्गानुसारी या व्रती सद्गृहस्थ है या शान्त, सन्तोषी, नीतिमान गृहस्थ है अथवा लोकसेवक है, वह आपके गाँव में अनायास ही या रास्ता भूल जाने के कारण आपके गाँव या घर में आ पहुँचा है अथवा वह कल का उपवासी है, तो वह मध्यम सुपात्र है। यद्यपि शुभ कर्म की दिशा में प्रस्थान करने वाले व्यक्ति को सर्वप्रथम अशुभ कर्म-पापकर्म से तो निवृत्त होना अत्यावश्यक है, साथ ही उसे यह भी देखना आवश्यक है कि कोई जीव या मानव अनुकम्पापात्र होते हुए भी यदि माँसाहार या शराब आदि अखाद्य-अपेय वस्तु का आदी है या ऐसी प्राणिहिंसाजन्य वस्तु चाहता है तो वैसी वस्तु देना कदापि पुण्यबन्धक नहीं होगा। पात्र, अनुकम्पापात्र या मध्यम सुपात्र की भी अन्नादि से निःस्वार्थभाव से सहायता करना उसकी योग्यतानुरूप उचित है, पुण्यवर्द्धक है। इनसे भी उच्च उत्कृष्ट सुपात्र वह है, जो भिक्षाजीवी है, साधुता के. गुणों से सम्पन्न है, अपनी संयम-यात्रा के लिए जो अल्पातिअल्प योग्य, एषणीय वस्तुओं से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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