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________________ * १६८ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 या नहीं? यदि असमय में बीज बोयेगा तो वह उगेगा या नहीं? इसमें भी संदेह है इसके अतिरिक्त बीज बोने के पश्चात् वह मन में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा को नहीं पालता कि बीज बो तो रहा हूँ, पता नहीं उगेगा या नहीं ? अथवा इसके बदले मुझे इतना फल तो मिलना ही चाहिए? या अभी तक मुझे इसका फल क्यों नहीं मिला? या अमुक को तो इसका फल मिल गया, मुझे अभी तक क्यों नहीं मिला? अथवा उसके फल में ही सन्देह करने लगे अथवा उस बीज के बोने का प्रतिफल मेरी प्रशंसा या प्रसिद्धि या मुझे पारितोषिक के रूप में मिले, ऐसी फलाकांक्षा विज्ञ कृषक नहीं करता। साथ ही बीज बोने के बाद उसको आँधी, पानी, हवा, जानवर आदि से रक्षा के लिए तथा समय-समय पर पानी देने और उसकी हिफाजत के लिए परिश्रम व तप करने हेतु विवेकी किसान सावधान रहता है। तभी उसे बीज बोने के अपने सार्थक श्रम का फल मिलता है। जीवन-क्षेत्र में आत्म-भूमि पर शुभाशुभ कर्मबीज का भी फल मिलता है इसी प्रकार जीवन के क्षेत्र में आत्मारूपी भूमि पर मनुष्य शुभ या अशुभ अथवा पुण्य या पापकर्म के जैसे बीज बोता है, उसे उसका फल अनेक गुना वापस मिलता है। अगर वह पुण्य के बीज बोता है, भलाई का बीजारोपण करता है तो उसे चारों ओर से उसके शुभ फल मिले बिना नहीं रहते हैं। पुण्य बीज के नौ प्रकार इसलिए कर्मविज्ञान के मर्मज्ञों ने पुण्य के मुख्य रूप में नौ बीज और पाप के मुख्यतया १८ बीज बताये हैं। वैसे तो पुण्य के उन नौ बीजों के भी अनेक प्रकार हो सकते हैं। यहाँ हमें शुभ योग-संवर के सन्दर्भ में पुण्य बीज के रूप में विचार करना है। अन्न, पान, लयन, शयन, वस्त्र, मन, वचन, काय और नमस्काररूप से शास्त्र में ९ प्रकार के पुण्य बताए हैं। अशुभ योग से निवृत्त होने की अपेक्षा से शुभ योग-संवर कहा है यद्यपि पुण्य एक प्रकार का शुभ कर्म है, वह शुभ योग है, कर्मबन्ध का कारण है, कर्मक्षय का कारण नहीं, तथापि अशुभ योग (अर्थात् मन, वचन, काया की अशुभ प्रवृत्ति) से निवृत्ति होने की अपेक्षा से इसे आचार्यों ने शुभ योग-संवर का रूप दिया है। १. नवविहे पुन्ने पण्णत्ते तं.-अन्नपुन्ने, पाणपुन्ने, वत्थपुन्ने, लयणपुन्ने, सयणपुन्ने, मणपुन्ने, वइपुन्ने, कायपुन्ने, नमोक्कारपुने। -स्थानांग, स्था. ९, सू. ८८५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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