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________________ ॐ १५६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ को भी अपशब्द कह बैठता है या उस पर दोषारोपण करने लगता है, तब उसे कुछ न कहकर मौन रहना ही श्रेयस्कर है। भगवान ने अपने साधुवर्ग को भी गोशालक से विवाद करने से मना कर दिया था। उस समय भगवान छद्मस्थ थे।' विद्वेषी और झगड़ालू को भूल न बताकर मौन रहना श्रेयस्कर उन्होंने इसी मनोवैज्ञानिक सूत्र को लेकर अपने धर्म-संघ के सभी साधु-साध्वियों को निर्देश दिया कि जब कोई व्यक्ति अपनी भूल न सुधारने और आत्म-हितैषी न बनकर सिर्फ विजिगीषु बनकर वितण्डावाद करने, द्वेष-रोष बढ़ाने हेतु विवाद करने आए, तो उसके साथ बात करने से अपनी आत्मा ही दूषित होने की सम्भावना है, अतः उस समय मौन रखना ही श्रेयस्कर है।" यह था किसी को उसकी भूल बताने-न बताने के सम्बन्ध में भगवान महावीर का मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण ! भूल बताना अनिवार्य हो तो किसको, कब, कैसे बताई जाए ? अतः किसी को उसकी भूल बताना अनिवार्य हो, उसकी भूल बताकर आत्म-शुद्धि न की जाए तो स्व और पर दोनों का अनिष्ट होता हो, ऐसे समय में युक्ति से और आत्मीयतापूर्वक भूल को परोक्ष रूप से बताकर सुधारना चाहिए। जैसे भावदेव अपने दीक्षित ज्येष्ठ-भ्राता भावदेव के लिहाज से अपनी नवोढ़ा धर्मपत्नी नागिला को छोड़कर दीक्षित हो गए थे। किन्तु कुछ वर्षों के बाद उनके मन में सांसारिक पत्नी के प्रति मोह जाग्रत हो गया और मौका पाकर वे अकेले ही नागिला से मिलने और पुनः गृहस्थी में फँसने को आतुर होकर चल पड़े। पानी भरने कुएँ पर आई हुई नागिला ने जब उन्हें दूर से ही आते हुए देखा तो वह समझ गई-मेरे सांसारिक पतिदेव अकेले आ रहे हैं, मुझे तथा स्वयं को त्यक्त विषयभोगों में पुनः फँसाने के लिए। वह पानी का घड़ा झटपट घर में रखकर अपनी एक सहेली को लेकर सामने पहुंची और दर्शन-वन्दन करके पूछा-"आप अकेले कैसे पधारे?" उन्होंने नागिला को न पहचानते हुए कहा-“इस गाँव में नागिला नाम की एक वणिक्-पत्नी रहती है। उससे मुझे मिलना है।” “कहिये, उससे आपको क्या काम है ? आप तो संसार-विरक्त साधु हैं।" नागिला ने पूछा तो उसने कहा-“क्या तुम मुझे उससे मिला दोगी? मुझे उससे कुछ बातें कहनी हैं।" नागिला समझ गई कि इनका मन संयम से विचलित हो गया है। अगर मैं इन्हें सीधा उपालम्भ देकर समझाने जाऊँगी और भूल बताऊँगी तो ये मानने वाले नहीं हैं। अतः इन्हें युक्ति से समझाकर संयम में-मुनिधर्म में स्थिर करना उचित होगा।" १. देखें-भगवतीसूत्र, श. १५ में गोशालक-अधिकार, प्रश्न १२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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