SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ वचन-संवर की सक्रिय साधना ® १४९ ® अत्यन्त घायल एवं बेहोश हो गए। यह था, ब्रेक होने पर भी गाड़ी को शराब पीकर अन्धाधुंध चलाने का दुष्परिणाम ! इसी प्रकार मानव-जीवनरूपी वाहन के मन, वचन और काय, ये तीन पहिये हैं, गति-प्रगति-प्रवृत्ति करने के लिए। यदि मानव-जीवनरूपी वाहन के इन तीनों पहियों पर ब्रेक न हो, मन-वचन-काय की गति, प्रगति या प्रवृत्ति को जहाँ रोकना हो, जहाँ इनकी प्रवृत्ति से खतरा उत्पन्न होने की आशंका हो, वहाँ इनकी गति-प्रवृत्ति का निरोध किया या रोका न जाय, उस पर अविलम्ब ब्रेक न लगाया जाय तो तुरन्त कर्मों के आगमन (आम्रव) होने, प्रविष्ट होने या बन्ध होने का खतरा उपस्थित हो सकता है। उस खतरे के या पापकर्म के कटु फल भोगने में नानी याद आ जाएगी। पुण्य और धर्म के बदले पाप और अशुभ बन्ध का उपार्जन ऐसे आस्रव और कर्मबन्ध के तथा उसके कटुफल से अनभिज्ञ लोग जिस मन, वचन और काया से पुण्य और संवर-निर्जरारूप धर्म उपार्जित कर सकते थे, उसके बदले वे अहर्निश इनका दुरुपयोग करके अशुभ (पाप) कर्म का बंध एवं आम्रव करके अपने लिए विषवृक्ष के बीज बोते रहते हैं। __ योगत्रय-संवर परस्पर एक-दूसरे से सम्बद्ध कोई भी प्रवृत्ति करते समय सबसे पहले मन में उसका जन्म होता है कि यह प्रवृत्ति इस प्रकार करनी चाहिए, इस प्रकार नहीं। उसके पश्चात् ही तदनुसार वचन या काया की प्रवृत्ति या गति होती है। इसलिए वचन-संवर या काय-संवर से मनः-संवर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। मन में किसी के प्रति बुरे विचार अथवा वंचना, प्रताड़ना करने, किसी पदार्थ की ममत्त्वपूर्वक सुरक्षा करने, हत्या करने या लूटने-खसोटने के कुविचार चल रहे हैं और वचन से उसने मीठी-मीठी, ठकुरसुहाती प्रंशसायुक्त बातें की अथवा मौन रखा या इशारा किया, तो वचन-संवर भी नहीं है और न मनः-संवर है। इसी प्रकार किसी व्यक्ति ने मन में किसी के प्रति अशुभ चिन्तन किया; किन्तु वचन और काया से किसी के प्रति आदरभाव दिखाया, बहुमान किया, उसके चरणों में वन्दन-नमन किया तो यहाँ भी मनः-संवर एवं वाक्-संवर नहीं है, काय-संवर भी नहीं है। शुभ योग-संवर कब होगा, कब नहीं ? - वचन-संवर या काय-संवर तभी होता है, जब मन में किसी के प्रति मंगलभावना हो, वचन से भी हित-मित-पथ्य-सत्य वचन प्रकट होता हो और काया से भी दूसरे के हित, कल्याण एवं विकास की चेष्टा हो, दूसरे की सेवा एवं परोपकार की वृत्ति-प्रवृत्ति हो। मतलब यह है कि मन-वचन-काया तीनों की प्रवृत्ति की एकरूपता, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy