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________________ ॐ १२८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ है कि तेरी शरीर-यात्रा भी अकर्म (प्रवृत्ति न करने) से नहीं चल सकती। अगर कोई प्रवृत्ति (कर्म) को दोषयुक्त समझकर अकर्मण्य बनकर बैठ जाता है, उससे भी उसका प्रवृत्तिमुक्त (अकर्म) बनना संभव नहीं। क्योंकि जब तक चेतनासम्बद्ध शरीर है, तब तक उसे तन, मन, वचन और इन्द्रियों के द्वारा कोई न कोई कर्म करना ही पड़ेगा। बेहोशी की अवस्था में भी भावमन काम करता रहता है। भगवान महावीर ने भी उच्च साधकों तथा गृहस्थ उपासकों को चलने-फिरने, उठने-बैठने, खाने-पीने, सोने-जागने, बोलने-देखने-सुनने, सोचने-विचारने आदि प्रवृत्तियाँ (क्रियाएँ या कर्म) करने की बिलकुल मनाही नहीं की, बल्कि उन्होंने कहा कि प्रत्येक शारीरिक मानसिक-वाचिक प्रवृत्ति यतनापूर्वक करने से पापकर्म का बंध नहीं होता।" यतनापूर्वक पराक्रम करे। सर्वेन्द्रियों से समाहित होकर अप्रमत्तभाव से सदा प्रयल करे।"२ भगवान महावीर का यह भी मन्तव्य है कि जो सर्वभूतात्मभूत बनकर सभी प्राणियों पर समभाव रखता है। आम्रवों का निरोध करता है, वह पापकर्म का बन्ध नहीं करता, शुभ योग-संवर का उपार्जन कर लेता है।३ कर्मयोगी को अन्तिम समय तक कर्म न छोड़ने का निर्देश भगवद्गीता में अन्त तक कर्म (प्रवृत्ति) न छोड़ने की बात कही है, साथ ही यह भी कहा है कि विद्वान् कर्मयोगी को युक्त होकर कर्म (प्रवृत्ति) करना चाहिए; कर्म के साथ आसक्ति, फलाकांक्षा आदि दोषों का त्याग करके कर्तृत्व के अहंकार से मुक्त होकर भगवदर्पणबुद्धि से सत्कर्म करना चाहिए। भगवान महावीर ने योग को मार्ग और अयोग को मंजिल कहा सारांश यह है कि अन्य दर्शन ने जहाँ कर्म (प्रवृत्ति या योग) से सर्वथारहित होने की बात नहीं कही, वहाँ भगवान महावीर आदि वीतराग तीर्थंकरों ने कर्म को अन्तिम मंजिल न कहकर, प्रशस्त शुभ योगरूप या शुद्धोपयोगरूप योग (कर्म) को मार्ग कहा है। महावीर की दृष्टि में कर्मों से सर्वथा मुक्तिरूप लक्ष्य है, इसलिए उनकी दृष्टि में अन्तिम मंजिल अकर्म है-अयोग (सर्वथा योगों से रहित होना) है। १. (क) शरीरयात्राऽपि च ते न प्रसिद्धभेदकर्मणः। -गीता, अ. ३, श्लो. ८ ' (ख) देखें-भगवद्गीता के कर्मयोग विषयक श्लोक, अ. ३/१९-२६ । २. जयमाणो परक्कम्मे। अप्पमत्तो जए निच्चं। -दशवै., अ. ८, गा. १६ ३. जयं चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए। जयं भुजंतो भासंतो, पावकम्मं न बंधइ। सव्वभूयप्प भूयस्स समं भूयाई पासओ। पिहिआसवस्स दंतस्स पावकम्मं न बंधइ॥ -दशवै. ४/८-९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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