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________________ ॐ योग का मार्ग : अयोग-संवर की मंजिल * १२७ ॐ महावीर के सम्पर्क में आने से पहले शुभ योगी होते हुए भी प्रशस्त शुभ योगी नहीं थे। किन्तु जब ग्यारह ही गणधरों के संशयों का अपने शिष्यों सहित भगवान महावीर के सम्पर्क में आने पर पूर्ण मनःसमाधान हो गया, तब वे भगवान के चरणों में समर्पित तथा श्रमण दीक्षा से दीक्षित हो गये, उनके पूर्व प्रशिक्षित वेदादि के ज्ञान को नई सम्यग्दृष्टि, सम्यकज्योति एवं सैद्धान्तिक पुष्टि मिल गई तो उनका वह अप्रशस्त शुभ योग प्रशस्त शुभ योग में परिणत हो गया और आगे चलकर वे शुद्धोपयोग की भूमिका पर आरूढ़ होकर अयोग-संवर की भूमिका पर पहुंच गए। प्रशस्त शुभ योग-संवर से अयोग-संवर की भूमिका इसी प्रकार वैसे तथारूप देव-गुरु-धर्म का उत्तम निमित्त मिलने पर एक समय का अशुभ योगी भी सहसा अध्यवसायों और भावों में शुभ योग की लहर आने पर तथा सम्यग्दृष्टि, सम्यक्समाधान एवं सम्यग्ज्ञान के मिलने से प्रशस्त शुभ योगसंवर की भूमिका पर आरूढ़ होकर शुद्धोपयोग के मार्ग पर बढ़ता-बढ़ता एक दिन पूर्ण अयोग-संवर की भूमिका को प्राप्त कर लेता है। अर्जुन मुनि, चिलातीपुत्र मुनि, प्रभव आदि ५00 चोर, रोहिणेय चोर आदि इस तथ्य के ज्वलन्त उदाहरण हैं। ___ प्रशस्त शुभ योग-संवर की धारा का प्रतिफल · वस्तुतः यह प्रशस्त शुभ योग की धारा देव, गुरु और धर्म के प्रति मूढ़तारहित सम्यग्दृष्टियुक्त असीम श्रद्धा, भक्ति, बहुमान तथा पर्युपासनायुक्त समर्पणवृत्ति से ओतप्रोत होती है। यद्यपि यह प्रशस्त शुभ योग की धारा भी रागात्मक होती है, परन्तु इसमें प्रशस्त राग होता है, जो अल्पतर और शुभ कर्मबन्ध का कारण है, इसमें उत्कृष्ट भाव रसायन आने पर तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन भी हो . सकता है। .. .. . गीतादर्शन और जैनदर्शन का योग के सम्बन्ध में मन्तव्य अब हमें यह देखना है कि द्रव्य और भाव दोनों से प्रशस्त शुभ योग के विषय में गीता आदि अन्य दर्शन व जैनदर्शन का क्या मन्तव्य है ? जिस प्रवृत्ति या क्रिया को जैनदर्शन ने योग कहा है, उसे भगवद्गीता ने कर्म कहा है। गीता में यह भी कहा १. अरहंत-सिद्ध-पवयण-गुरु-थेर-बहुस्सुए-तवस्सीसुं। वच्छलया य तेसिं अभिक्खणाणोवओगे॥१॥ दसण-विणए-आवस्सए य सीलव्वए निरइयारं। खणं-लव-तव-च्चियाए वेयावच्चे समाही य॥२॥ अपुव्वणाण-गहणे सुयभत्ती पवयणो पभावणया। एएहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥३॥ -ज्ञाताधर्मकथा, अ. ८, सू. ६४ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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