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________________ कामवृत्ति से विरति की मीमांसा ४ ११३ प्राप्त होता है । यह हृदय, फेफड़े और मस्तिष्क की क्रियाएँ नियमित करता है। विषम बने हुए वात, पित्त और कफ को सम करता है, सभी अवयव इससे ठीक काम करने लगते हैं। चित्त स्वस्थ रखने से वह वासनायुक्त बन सकता है और चित्त की स्वस्थता के लिए वातादि त्रिदोषों पर नियंत्रण रखना जरूरी है। अतः हठयोग कामवासना नष्ट करके परम्परा से आत्म शुद्धि प्राप्त करता है । किन्तु पूर्व-जन्म की आराधना-साधना से जिसको चित्त-शुद्धि सहज रूप से प्राप्त हो, वे मुमुक्षु सीधे राजयोग में प्रवेश कर सकते हैं। उनके लिए सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय, सम्यक् बाह्याभ्यन्तर तप, समितिगुप्ति, व्रताचरण, परीषहजय, समत्व-साधना, कषायविजय, वीतरागता आदि की साधना उपादेय है। राजयोग की प्रक्रिया से व्यक्ति सफलतापूर्वक समस्त कर्मक्षयरूप मोक्षमार्ग में आसानी से प्रयाण कर सकता है। वीर्य का अधोगमन ही कामवासना है, जबकि वीर्य का ऊर्ध्वगमन निर्विकारिता है। अतः वीर्य के ऊर्ध्वकरण के उपायों में योगासन, प्राणायाम आदि उपयोगी साधन हैं। वीर्य के ऊर्ध्वकरण होने पर कामवृत्ति पर स्वतः नियंत्रण हो जाता है। वीर्य का ऊर्ध्वकरण हो जाने पर साधक के समक्ष चाहे जितने कामोत्तेजना के निमित्त आयें, तो भी वह स्खलित या उत्तेजित नहीं होगा। क्योंकि वीर्य के ऊर्ध्वगमन से वह ओज और तेजरूप में परिणत हो जाता है। ऊर्ध्वगमन की सिद्धि मिलने पर चाहे जितनी अप्सराएँ भी आयें तो भी वे चलायमान नहीं कर सकेंगी। वीर्य के ऊर्ध्वकरण में योगाचार्य शीर्षासन और सिद्धासन सहायकरूप हो सकते हैं। शरीर की आन्तरिक मल-शुद्धि के लिए नेति, थोती आदि हठयोग के प्रयोग उपयोगी हो सकते हैं। शरीर में मल जमा होने पर वीर्यस्खलन अर्थात् वीर्य का अधोगमन हो जाता है। अतः ये प्रयोग भी वर्तमान युग में वीर्य के ऊर्ध्वकरण में मददगार हैं। ये निर्दोष चिकित्साएँ : काम-नियंत्रण में सहायक कदाचित् शरीर रोगिष्ठ हो जाये तो निसर्गोपचार, उपवासचिकित्सा, एक्युप्रेसरचिकित्सा, एक्युपंचरचिकित्सा, रंगचिकित्सा, यौगिकचिकित्सा, जलचिकित्सा, सूर्यचिकित्सा, चुम्बकीयचिकित्सा आदि निर्दोष एवं अहिंसकचिकित्सा पद्धतियों से रोग-मुक्ति और स्वास्थ्यता, बलवृद्धि आदि अनायास प्राप्त हो सकते हैं और ब्रह्मचर्य की सुरक्षा तथा काम-नियंत्रण सहज में हो सकता है। तन और मन स्वस्थ होने से ज्ञानादि रत्नत्रयरूप धर्म की आराधना करके व्यक्ति संवर-निर्जरा और अन्त में मोक्ष प्राप्त कर सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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