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________________ * ९८ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ ब्रह्मचर्य-सिद्धि के लिए नौ गुप्तियाँ दसवाँ कोट यही कारण है कि स्थानांग, समवायांग एवं उत्तराध्ययन आदि आगमों में कामविकारों के निमित्तों से बचने के लिए ब्रह्मचर्य की नौ वाड या गुप्तियाँ अथव दस ब्रह्मचर्य समाधि स्थान इस प्रकार बताये गये हैं (१) ब्रह्मचारी स्त्री, पशु और नपुंसकों का जहाँ वास हो, वहाँ नहीं रहे। (२) स्त्रियों के रूप, हावभाव, अंगोपांग, सौन्दर्य आदि की विकथा न करे। (३) स्त्री के साथ एक आसन पर न बैठे, स्त्री जहाँ बैठी हो, उस आसन या स्थान पर भी एक मुहूर्त तक न बैठे। स्त्रियों से अधिक सम्पर्क न रखे, एकान्त में अकेली स्त्री से वार्तालाप न करे। (४) स्त्रियों के मनोहर अंगोपांगों को टकटकी लगाकर न देखे। (५) स्निग्ध, सरस या गरिष्ठ भोजन प्रतिदिन न करे, मादक आहार न करे। (६) रूखा-सूखा भोजन भी लूंस-ठूसकर न करे, अधिक भोजन न करे। . (७) पूर्वभुक्त कामभोगों-विलासों का स्मरण न करे। (८) महिलाओं के शब्द, रूप या ख्याति (वर्णन) आदि पर ध्यान न दे, तुरन्त भूल जाए। (९) पुण्योदय के कारण प्राप्त अनुकूल (मनोज्ञ) वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि के विषयसुखों में आसक्त न हो, कामासक्त तो बिलकुल न हो। (१०) अपने शरीर की साजसज्जा तथा मंडन-विभूषा न करे। इन निमित्तों से न बचने का दुष्परिणाम इन १0 निमित्तों से काम-संवर के साधकवर्ग को बचना आवश्यक है। इन १० निमित्तों से न बचने पर काम-संवर-साधक ब्रह्मचारी के हृदय में शंका, कांक्षा और विचिकित्सा आदि दोष उत्पन्न होते हैं। इनमें से किसी भी निमित्त के मिलने पर काम-संवर-साधक को भ्रष्ट होते देर नहीं लगती। फिर वह श्रुत-चारित्ररूप धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, कामोन्माद, दाह-ज्वर, मस्तिष्क-विक्षिप्तता आदि भयंकर आधि-व्याधियों से घिर जाता है। मोहनीय कर्म के उदय से वह सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रयरूप धर्म को ही छोड़ देता है। शास्त्र में तो यहाँ तक कहा गया है-जिस कक्ष में दीवारों पर या फ्रेम में जटित अलंकारित शृंगारित स्त्रियों के चित्र हों, वहाँ ब्रह्मचारी-साधक को उस ओर टकटकी लगाकर नहीं देखना चाहिए, न ही मन में उनका चिन्तन करना चाहिए। कदाचित् उस तरफ साधक की दृष्टि पड़ जाय तो १. देखें-स्थानांगसूत्र, स्था. ९; समवायांगसूत्र, समवाय ९; उत्तराध्ययनसूत्र, अ. १६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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