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ॐ ९० * कर्मविज्ञान : भाग ७ *
वेदत्रय नोकषाय : क्या और कैसे ? __इसके पश्चात् सातवें, आठवें और नौवें नोकषाय हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। स्त्रीवेद-जैसे पित्त के उदय से मीठा खाने की इच्छा होती है; उसी प्रकार जिस (मोहनीय) कर्म के उदय से स्त्री को पुरुष की अभिलाषा होती है, उसका नाम स्त्रीवेद है। स्त्रीवेद का स्पष्टार्थ है-स्त्री की काम-सम्बन्धी वासना या विकारवृत्ति। स्त्री की काम-वासना छाणों की आग के समान अन्दर ही अन्दर भभकती रहती है। चाणक्य ने स्त्रियों का काम-विकार पुरुषों से आठ गुणा माना है। पुरुषवेद-जैसे कफ के प्रकोप से खट्टी चीज खाने की इच्छा होती है, उसी प्रकार जिस (मोह) कर्म के उदय से पुरुष को स्त्री की इच्छा होती है, उसका नाम पुरुषवेद है। पुरुष की काम-वासना दावानल (घास की आग) के समान एकदम भड़क उठती है, किन्तु फिर शान्त हो जाती है। नपंसकवेंद-जैसे पित्त और कफ के प्रकोप से अत्यधिक दाह उत्पन्न होता है, फिर उसे शान्त करने की तीव्र इच्छा उत्पन्न होती है, उसी प्रकार जिस (मोह) कर्म के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ भोग करने की इच्छा हो, उसे नपुंसकवेद कहते हैं। नपुंसक की काम-वासना अत्यधिक तीव्र और महानगर के दाह के समान तेज और चिरस्थायी होती है।
स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद में काम-वेदन उत्तरोत्तर अधिकाधिक रहता है। यहाँ काम-वासना को अग्नि की उपमा दी गई है। जैसे-आग में घी डालने से वह बढ़ती जाती है, कम नहीं होती; उसी प्रकार काम-सेवन से कामपिपासा शान्त नहीं होती, बल्कि अधिकाधिक बढ़ती जाती है। __ जैसे किम्पाकफल रंगरूप में अच्छे तथा खाने में मधुर एवं स्वादिष्ट लगते हैं, किन्तु सेवन करते ही वे सेवन करने वाले को मार डालते हैं वैसे ही कामभोगपिछले पृष्ठ का शेष
(ख) बायरन की उक्ति (ग) भर्तृहरि (घ) जर्मन लोकोक्ति (ङ) अमेरिका की 'रीड' मेगजीन के अगस्त १९४५ के अंक से भाव ग्रहण (च) 'Thus Spake Gandhiji' से भाव ग्रहण । (छ) कुत्सा प्रकारो जुगुप्सा। आत्मीयदोष-संवरणं जुगुप्सा, परकीयकुलशीलादिदोषाविष्करणाव क्षेपण-भर्त्सन प्रवणा कुत्सा।
___ -राजवार्तिक ८/९/४/५७४/१८, सर्वार्थसिद्धि ८/९/३८६/१ (ज) सद्धर्मापन्न-चतुर्वर्णविशिष्ट-वर्ग-कुलक्रियाचार-प्रवणजुगुप्सा-परिवाद-शीलत्वादिर्जुगुप्सावेदनीयस्य।
-रा. वा. ६/१४/३/५२५ (झ) “मोक्ष-प्रकाश' (मुनि श्री धनराज जी) से भाव ग्रहण, पृ. ४७-४८
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