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________________ ® ७८ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ ® इसी प्रकार कोई आत्म-शुद्धि-साधकरूपी इंजीनियर आत्मारूपी सरोवर में पहले से जमा कर्मरूपी कीचड़ को हटाकर, उसका पानी निकालकर उसे शुद्ध, स्वच्छ (कर्ममल से रहित), शुष्क करना चाहता है, तो उसे सर्वप्रथम उक्त आत्म-सरोवर में को प्रविष्ट करने देने वाले आम्रवरूपी नालों को बंद करना = रोकना होगा। उसके पश्चात् पहले से जमे हुए कर्मरूपी कीचड़ और (कषायों की) गंदगी को दूर करने के लिए साधना के इहलौकिक-पारलौकिक दोषों से दूर रहकर बाह्याभ्यन्तर तप, परीषह-विजय, समिति-गुप्ति, दशविध उत्तम धर्म या रत्नत्रयरूप धर्म, अनुप्रेक्षा आदि की साधना करनी होगी। निष्कर्ष यह है कि जब तक पहले आम्रवरूपी नालों को बन्द (निरोध) करके बाहर से आने वाले कर्मजल के प्रवाह को रोका (संवर) नहीं (किया) जाएगा; तब तक आत्म-शुद्धि (आन्तरिक कर्मपंक आदि के निष्कासन द्वारा) रूप निर्जरा (कर्मक्षय) की साधना का कोई अर्थ नहीं रहेगा। हरिकेशबल मुनि के पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों का उदय चल रहा था, उसके कारण दीक्षा लेने से पूर्व और पश्चात् भी स्थूलदृष्टि-परायण आम जनता उनका तिरस्कार, अपमान, दोषारोपण, बहिष्कार, असहकार आदि करती थी; किन्तु हरिकेशबल मुनि दीक्षा लेते ही सर्वप्रथम एक ओर से इन सबकी कोई भी परवाह किये बिना मन, वचन, काया से किसी प्रकार की प्रतिक्रिया बिना संयमपथ पर चलते रहे, दूसरी ओर से उन्होंने पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों के फल को उदय में आने पर समभाव से भोगा, उत्कृष्ट बाह्याभ्यन्तर तपःसाधना करके उन कर्मों की उदीरणा करके उन्हें क्षय किया। अनेक लब्धियाँ, उपलब्धियाँ तप के प्रभाव से प्राप्त होने पर भी उन्होंने न तो उनका प्रदर्शन किया और न अहंकार, क्रोध, लोभ, रोष, द्वेष, वैर-विरोध आदि किया। इस कारण कर्मनिर्जरा की गंगा अविरत अबाध गति से चलती रही और एक दिन वह महाभाग महान् आत्मा संसार के जन्म-मरणादि के चक्र में फँसाने वाले कर्मों से सर्वथा रहित सिद्ध-बुद्ध हो गए। यह था-संवरपूर्वक निर्जरा के द्वारा कर्मों से मुक्ति आत्मा की पूर्ण शुद्धि का क्रम। अतः किसी भी कर्ममुक्ति के साधक को संवरपूर्वक निर्जरा की साधना से ही सफलता मिल सकती है। सहसा पहले संवर और फिर निर्जरा कैसे करें ? एक उदाहरण एक उदाहरण द्वारा इसे और स्पष्ट कर दूँ-एक समभावी साधु था। उसकी परीक्षा करने के लिए, एक अपरिचित व्यक्ति ने पहले उसे बहुत गालियाँ दीं-“तू नीच है, आचारहीन है, मूढ़ है, स्वार्थी है, धर्म-कर्म का विवेकी नहीं है, उदरम्भरी है।" दूसरा होता तो तुरन्त उसके मन में प्रतिक्रिया होती, वचन से वह आवेशवश होकर उसका प्रतिवाद करता, काया से भी सम्भव है, उसके साथ लड़ पड़ता या
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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