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________________ * ७६ कर्मविज्ञान : भाग ६ कर्मविज्ञान विशारद आचार्यों का कथन है कि कर्मबन्धोच्छेद के प्रसंग में संवर के पश्चात् निर्जरा करने से साधक कर्म से सर्वथा मुक्ति प्राप्त कर सकता है। संवरविहीन निर्जरा प्रायः निरर्थक हो जाती है । 'भगवती आराधना' में इसी तथ्य का समर्थन करते हुए कहा गया है कि “जो मुनि संवरविहीन है, उसके कर्मों का क्षय केवल तपश्चरण से नहीं हो सकता ।" एक उदाहरण द्वारा इसे स्पष्ट समझा जा सकता है - किसी तालाब के पानी को खाली करना हो तो पहले उन नालों को बंद करना पड़ता है, जिनसे तालाब में पानी आता है। अगर वैसा न करके केवल तालाब के अन्दर का पानी ही बाहर निकाला जाए तो नालियाँ खुली होने से बाहर से जल-प्रवाह अन्दर आता ही रहेगा, वह रुकेगा नहीं । फलतः तालाब सूखेंगा नहीं । अतः पहले नये आते हुए जल-प्रवाह को बन्द करना ( रोकना) अनिवार्य है; तत्पश्चात् अन्दर का पानी किसी यंत्र - विशेष से बाहर निकाला जाता है। ऐसा करने से ही तालाब का सारा पानी खाली हो सकता है। इसी प्रकार आत्मा के साथ बँधे हुए कर्म के उदय में आने पर कर्मबन्ध का उच्छेद करने के लिए पहले बाहर से नये आते हुए कर्म को रोकना ( आनव-निरोधरूप संवर करना) अनिवार्य है, तत्पश्चात् पूर्वबद्ध कर्मों की (जो सत्ता में आत्मा में पड़े हैं) निर्जरा करने से आत्मा कर्मों से रहित हो सकती है । इसलिए पहले संवर को छोड़कर निर्जरा की जाएगी तो उधर से पुराने बँधे हुए कर्म छूटेंगे नहीं और इधर से नये कर्मों का जत्था भर्ती होता जाएगा। आत्मा कर्मविहीन या कर्ममुक्त कभी न बन सकेगी; आत्मा कर्मों का सर्वथा उच्छेद नहीं कर सकेगी। . ‘तत्त्वार्थ राजवार्तिक' में बताया गया है कि शत्रुसेना से नगर की सुरक्षा करने के लिए पहले नगर की भलीभाँति घेराबंदी कर दी जाती है, ताकि शत्रुसैन्य बाहर से नगर में प्रवेश न कर सके । तत्पश्चात् पहले से जो शत्रुसैनिक नगर में घुस चुके हैं, उनका सामना करके बाहर खदेड़ा जाता है । इसी प्रकार आत्मारूपी नगर में नये घुसने वाले कर्मशत्रुओं को गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, चारित्र, परीषहविजयरूपी हथियारों से लड़कर उन्हें रोका जाता है। इस प्रकार मन-वचन-काया एवं इन्द्रियों को संवृत कर देने से आत्मा में आने वाले नये कर्मों का प्रवाह रुक जाता है। यही संवर है । तत्पश्चात् पहले से आत्मा में प्रविष्ट कर्मों को तप आदि से आत्मा से पृथक् करना (निर्जरा करना) उचित है | २ जैसे युद्ध के मोर्चे पर खड़ा हुआ सैनिक पहले विपक्ष - शत्रुपक्ष के योद्धाओं को अपने समरांगण की सीमा में आने से रोकता है, उसके पश्चात् पहले से घुसे हुए १. (क) 'भगवती आराधना' (आचार्य शिवकोटि) से भावांश ग्रहण (ख) आनवनिरोधः संवरः । -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ९, सू. १ २. तत्त्वार्थ राजवार्तिक १/४/११ तथा ९/१
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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