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ॐ पहले कौन ? संवर या निर्जरा ® ७५ ॐ
की पहलवानी का काम बहुत ही दुष्कर है। उसमें सफलता न मिलने से, केवल क्रियाकाण्डों के बल पर आने वाले कर्मास्रवों का सामना करना भी सम्भव नहीं होगा। अतः पहले आनवों का निरोधरूप संवर करना ही हितावह है।
___ पहले अशुभ कर्म-प्रवाह को रोकना होगा शरीर में जब कोई रोग हो जाता है तो चिकित्सा के लिए पहले चिकित्सक बीमारी को बढ़ने से रोकने का उपाय करता है। दूसरी बीमारियाँ शरीर में घुसने न पायें, अन्य व्याधियों के जर्स (कीटाणु) शरीर में न बढ़ें, इसका उपाय सबसे पहले करके ही फिर चिकित्सक शरीर में पहले से प्रविष्ट रोग के कीटाणुओं को नष्ट करने या हटाने की चिकित्सा करता है। इसी प्रकार कर्ममुक्ति की अध्यात्मसाधना में अन्तर-शुद्धि की भी दो प्रक्रियाएँ हैं-एक है-प्रति क्षण आते हुए अशुभ कर्मों के प्रवाह को रोकना, जिसे संवर कहते हैं; दूसरी है-तत्पश्चात् भीतर में जो अशुभ कर्मजल भरा है, उसे निकालकर बाहर फेंकना, जिसे निर्जरा कहते हैं।
प्रथम संवर, फिर निर्जरा उपादेय है इन आन्तरिक शुद्धि या आत्म-शुद्धि के अथवा कर्ममुक्ति के द्विविध उपायों में से विवेकी साधक सर्वप्रथम मन-वचन-काय-गुप्ति द्वारा सर्वप्रथम पाप-प्रवाह को रोकता है, उनका निरोध करता है। पापासव का संवरण करने के पश्चात् ही वह बाह्याभ्यन्तर तप द्वारा आत्मा में प्रविष्ट कर्ममल को निकालकर बाहर फेंकता है। पूर्वबद्ध कर्मों को समभाव से भोगकर नष्ट कर देता है। इसलिए आत्म-शुद्धि की ये दोनों प्रक्रियाएँ छद्मस्थ साधक के लिए क्रमशः उपादेय हैं। .
अतः विवेकी साधक को पहले नये आते हुए कर्मों के निरोधरूप संवर करने के साथ ही क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दस धर्म, समिति, गुप्ति, परीषहजय, चारित्र-पालन एवं बाह्याभ्यन्तर तप आदि के सतत अभ्यास से पूर्वकृत संचित कर्मों की निर्जरा करके आत्मा को शुद्ध और पुष्ट करना चाहिए।
जैनागमों द्वारा संवर को प्राथमिकता देने का सयुक्तिक समाधान जैन-कर्मविज्ञान में कर्मबन्ध के उच्छेद की दो विधियाँ प्रतिपादित की गई हैं। पहली विधि के द्वारा नये आते हुए कर्मों के बन्ध को रोका जाता है, इसे कर्मविज्ञान की भाषा में संवर कहा गया है। दूसरी विधि के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों को आत्मा से अपने विपाक (कर्मफल भोग) से पूर्व ही बाह्याभ्यन्तर तप आदि के द्वारा पृथक् कर दिया जाता है। इसे कर्मविज्ञान की भाषा में 'निर्जरा' कहा जाता है।
१. 'आगममुक्ता' (उपाध्याय केवल मुनि) से भावांश ग्रहण, पृ. २१३