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ॐ ७२ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ *
ज्ञात और दृष्ट = अनुभूत वस्तु में से उपादेय को आचरित = क्रियान्वित करो। जब इन तीनों का समन्वय होता है, तभी सर्व समस्याओं का समाधान हो जाता है, यह परमसमाधि का, सर्वकर्ममुक्ति का मार्ग है। पंचविध संवर में इन तीनों या सम्यक्तप सहित चारों का समावेश हो जाता है। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यकचारित्र और सम्यक्तप, इन चारों को मिलकर मोक्ष का मार्ग माना है। मोक्ष या मुक्ति का वास्तविक अर्थ है-मोहकर्म का सर्वथा नष्ट हो जाना, कषायों का समाप्त हो जाना, आम्रवों का पूर्णतया अभाव हो जाना।
तात्पर्य यह है-समाधान का रत्नत्रय या सम्यक-चतुष्टयरूप मार्ग है। यही समस्त आम्रवों से मुक्ति का मार्ग है। इसमें सर्वप्रथम सम्यग्ज्ञांन करना होता है, यानी अपने आप को सम्यक् प्रकार से सभी पहलुओं से, भलीभाँति जानना होता है। जो अपने आप को नहीं जानता, वह आत्म-बाह्य बहुत-सी बातें जानकर भी नहीं जानता या अत्यन्त अल्प जानता है। जो अपने आप को सम्यक प्रकार से जानता है, वह बहुत-सी अन्य बातों को न जानकर भी बहुत जान लेता है। यही अन्तर्दृष्टि को जगाने, अन्तर्मुखी बनने की आसान पद्धति है। जब अपना ज्ञान आत्मा के साथ ओतप्रोत हो जाता है, तब व्यक्ति आत्म-बाह्य ज्ञान को-पुस्तकीय ज्ञान को पढ़े बिना भी सब कुछ जान लेता है। उसकी अन्तर्दृष्टि खुल जाती है। केवल जान लेने मात्र से समस्या का समाधान नहीं होता, इसलिए जानने के साथ उस पर दृढ़ आस्था का होना जरूरी है। तात्पर्य यह है-ज्ञान का अनुभवयुक्त हो जाना अनिवार्य है। केवल जानने और अनुभव करने में बहुत अन्तर होता है। एक व्यक्ति शास्त्रों से, पुस्तकों से या ग्रन्थों से किसी तत्त्व या तथ्य को जान लेता है, परन्तु जब तक वह उस तथ्य का स्वयं अनुभव नहीं कर लेता, तब तक जानी हुई वस्तु अपूर्ण रह जाती है। इसलिए सम्यग्ज्ञान के साथ सम्यग्दर्शन का होना आवश्यक माना है। इन दोनों के होने पर भी जब तक उक्त ज्ञान या दृष्ट वस्तु आचरित नहीं की जाती, तब तक आस्रवों से मुक्ति नहीं होती, समस्याओं से पूर्ण समाधि (समाधान) नहीं प्राप्त होती। समस्या को असली रूप में पकड़ने पर ही समाधान सही मिल जाता है .
परन्तु समस्या तो तब उलझती जाती है, जब व्यक्ति किसी भी सजीव या निर्जीव पदार्थ को सम्यक प्रकार से सभी पहलुओं से जानना नहीं चाहता। वह पुस्तकों को, ग्रन्थों को पढ़कर अथवा किसी से सुनकर जानकारी तो कर लेता है, परन्तु वह जानकारी आत्मा = शुद्ध आत्मा से सम्बन्धित, उसके साथ ध्येयानुकूल नहीं होती। जानना सम्यग्ज्ञान तभी बनता है, जब जानने के साथ उस वस्तु की
१. 'अपने घर में' से भावांश ग्रहण