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8 समस्या के स्रोत : आस्रव, समाधान के स्रोत : संवर * ७१ *
आस्रव और संवर : अपने हाथ में लोक-व्यवहार में देखा जाता है कि मकान में आने और जाने के दो द्वार नहीं होते। जिस द्वार से भीतर आया जा सकता है, उसी द्वार से बाहर जाया जा सकता है। चढ़ने और उतरने के दो सोपानमार्ग भी नहीं होते। जिन सीढ़ियों से ऊपर चढ़ा जा सकता है, उन्हीं सीढ़ियों से नीचे उतरा जा सकता है। ऊपर अच्छा भी चढ़ सकता है और बुरा भी। इसी प्रकार भीतर अच्छा भी आ सकता है और बुरा भी। जब तक मकान रहता है, तब तक द्वार और सोपान भी रहेंगे। उन्हें मिटाया या रोका नहीं जा सकता। इसी प्रकार जब तक जीवन है, तब तक आस्रवद्वार भी रहेंगे। यह तो आत्मा पर निर्भर है कि वह इस द्वार से आस्रवों का प्रवेश करने दे या उन्हें आते हुए रोके, प्रवेश करने न दे। जीवन के सोपान से संवर के द्वारा ऊर्ध्व-आरोहण करे, उस सोपान से अधः-अवरोहण न करे-आस्रव द्वारा अधःपतन न होने दे आत्मा का। इसी दृष्टि से श्रमण भगवान महावीर ने कहा“जे आसवा ते परिसवा, जे परिसवा ते आसवा।"१–जो आस्रव हैं, वे परिस्रव हैं; जो परिस्रव हैं, वे आस्रव हैं। जिन द्वारों से कर्म आते हैं, कर्मबन्धन होते हैं, उन्हीं द्वारों से कर्मों का संवर होता है, निर्जरा (कर्म-निर्गमन) होता है। बन्धन और मुक्ति के द्वार दो नहीं हैं। जिन द्वारों से बन्धन आते हैं, उन्हीं द्वारों से मुक्ति प्राप्त होती है, बशर्ते कि आत्मा सावधान रहे, जाग्रत रहे, अपने आप को जाने, आत्म-भावों से बाहर न जाने दे, पर-भावों में जाने से आत्मा को रोके। इसीलिए निश्चयदृष्टि से कहा गया-“आया सामाइए, आया संवरे, आया संयमे, आया पच्चक्खाणे।"२ अर्थात् आत्म-दर्शन ही सामायिक है, वही संवर है, वही संयम है, वही प्रत्याख्यान है।
इसी प्रकार के आत्म-दर्शन से मन-वचन-कायरूप संवर सध जाते हैं। समस्याओं का निवारण हो जाता है।
समस्याओं का एक और समाधान : रत्नत्रय-साधना अतएव मुमुक्षु और आत्मार्थी जीवों को आस्रवों से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का एक समाधान जैनाचार्यों ने सम्यग्ज्ञान-सम्यग्दर्शन-सम्यकचारित्ररूप रत्नत्रय को भी माना है। पहला है-सम्यग्ज्ञान, दूसरा है-सम्यग्दर्शन और तीसरा है-सम्यक्चारित्र। अर्थात् समस्याओं का समाधान करने के लिए पहले जानो, अर्थात् अपने आप को और पर-भावों-विभावों को जानो, उसके बाद जानी हुई वस्तु पर श्रद्धा करो, उस सम्यग्ज्ञान वस्तु पर आस्था-निष्ठा करो, उसके पश्चात्
१. आचारांगसूत्र, श्रु. १ २. भगवतीसूत्र