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________________ ® ७० ® कर्मविज्ञान : भाग ६ ® सम्पन्न होने लगेगा। फिर क्रोध, मान, माया, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, भय, काम, तृष्णा, चिन्ता, आसक्ति, घृणा, लालसा आदि कषाय-नोकषायजनित समस्याएँ कम हो जाएँगी, मिट भी सकती हैं। पदार्थ की लोलुपता मिट जाती है, तब ईर्ष्या, अहंकार, द्वेष आदि भाव स्वतः नहीं जागेगा। योगत्रय की चंचलता कम होने पर ही आत्म-समाधि की सक्षमता जब इन समस्याओं का समाधान हो जाता है, मन आत्म-तृप्ति और आत्म-संतुष्टि से भर जाता है, वृत्ति बहिर्मुखी न होकर अन्तर्मुखी हो जाती है, तब पंचम समाधान प्राप्त होता है-योगत्रय की चंचलता का अभाव। अर्थात् मन, वाणी और काया की जो उछलकूद है, बार-बार बाहर की ओर दौड़ है, वह कम हो जाती है। चंचलता कम हो जाने से व्यक्ति अपने आप को देखने-खोजने और आत्म-समाधि प्राप्त करने में सक्षम हो जाता है। संक्षेप में, पहली से लेकर पाँचवीं समस्या के जनकरूप आम्रवों का पंचविध संवर से समाधान हो जाता है। सम्यग्दर्शन संवर से पंचविध उपलब्धियाँ प्रथम आस्रव के समाधानरूप सम्यग्दर्शनरूप संवर से ही जब व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् हो जाएगा, तब उसमें प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पाभाव और आस्तिक्य (सत्यनिष्ठा) जाग्रत हो जाएगा। मानसिक, वाचिक, कायिक शान्ति होगी, मोक्ष (कर्ममुक्ति) के प्रति तीव्रता जागेगी, वैराग्य एवं अनासक्तिभाव दृढ़ होगा, पदार्थों के प्रति तृष्णा, लालसा कम होने लगेगी, समस्त जीवों के प्रति अनुकम्पाभाव जागेगा और सत्यनिष्ठा प्रबल हो जाएगी। संसारी जीवन में आस्रव रहेगा : संवर ही उसे रोकने का उपाय है यद्यपि जब तक यह जीवन है, तब तक आस्रव है, उसके अस्तित्व को सर्वथा समाप्त नहीं किया जा सकता। वह अपाय है, समस्या है, आत्मा के लिए। प्रति क्षण शुभ-अशुभ कर्म-पुद्गल इस आम्रवद्वार से आत्मा में प्रविष्ट हो रहे हैं। भीतर जाकर चेतना पर अपना प्रभुत्व जमा रहे हैं। आत्मा के न चाहने पर भी वैसा सब कुछ घटित होता रहता है। यही अपने आप में एक बड़ी समस्या है। आध्यात्मिक क्षेत्र में इस समस्या के निवारण का उपाय खोजा गया। अध्यात्म के धुरन्धर महर्षियों ने कहा-संवर ही एकमात्र मार्ग है, आस्रवरूप समस्या के समाधान का, इस महान् अपाय को रोकने का। जो आस्रव सतत प्रवहमान है, उसे रोकना ही संवर है। जो कूड़ा-करकट जिस आम्रवरूप द्वार से भीतर (अन्तर) में आ रहा है, उस द्वार को बन्द कर देना ही संवर है।
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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