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________________ ॐ समस्या के स्रोत : आम्रव, समाधान के स्रोत : संवर 8 ६९ अविरति से उत्पन्न समस्याओं का समाधान : विरतिरूप संवर अविरतिरूप आम्रव से जो समस्याएँ होती हैं, उनको शान्त एवं समाहित करने के लिए विरतिरूप संवर को अपनाना उचित होगा। तप, त्याग, संयम, नियम, प्रत्याख्यान आदि के रूप में, एक शब्द में कहें तो विरतिरूप संवर के प्रकाश में उसके मन, बुद्धि, चित्त और हृदय में समभाव एवं शमभाव की ज्योति प्रस्फुटित होगी। उसके मन में सांसारिक पदार्थों एवं विषयों के प्रति निर्वेद (वैराग्यभाव) उत्पन्न होगा। संवेगभावना (कर्मों से सर्वथा मुक्तिरूप मोक्ष-प्राप्ति की तड़फन) जागेगी। जिससे पदार्थों को पाने की लालसा, ममता, मूर्छा, वासना, तृष्णा आदि कम होते जाएँगे। शरीर-निर्वाह के लिए वह जो भी लेगा, निःस्पृह; निर्लेपभाव से लेगा, यथा-लाभ सन्तोषवृत्ति धारण करेगा। उसके जीवन में शम, सम और आध्यात्मिक श्रम तीनों साकार होते जाएँगे। समता, शान्ति और सहिष्णुता जीवन में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होगी। आत्मौपम्य दृष्टि होने से हिंसादि पाँचों आस्रवों से स्वतः विरति होती जायेगी। उसमें संयम, यम, नियम, त्याग, तप, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग, व्युत्सर्ग या विसर्जन की स्वतः स्फूर्तभावना होगी। अप्रमाद से अनेक समस्याओं का समाधान : कैसे और क्यों ? जब दृष्टि सम्यक् होगी, विरति जीवन में आलोकित होगी, तो प्रमादरूप आस्रव से होने वाली समस्याएँ भी अप्रमादरूप संवर से घटती या बढ़ती जाएँगी। जागरूकता, सावधानी, आस्था, निष्ठा, प्रति क्षण जागृति, विवेक, यतना एवं अप्रमत्तता बढ़ेगी। वह प्रत्येक मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवत्ति के समय कहीं भी कषायादिवश या राग-द्वेषवश पापकर्म का बन्ध न हो जाए, इसके लिए सतर्क रहेगा। अपनी दृष्टि, वृत्ति, निष्ठा, प्रवृत्ति, क्रिया आदि को प्रति क्षण टटोलता रहेगा कि कहीं वह विपरीत, असम्यक्, शिथिल या कर्मबन्धकारक अथवा पापकर्मबन्धक तो नहीं हो रही है ? कहीं आर्त-रौद्रध्यान के प्रवाह में तो ध्यान नहीं बह रहा है? किसी दूसरे के प्रति ईर्ष्या, द्वेष, वैर-विरोध, छल-कपट, धोखाधड़ी, वंचना, मोह-ममता आदि की वृत्ति तो नहीं पनप रही है ? अथवा स्व-भावों से हटकर पर-भाव अथवा कषायादि विभावों की ओर तो मनोवृत्ति नहीं दौड़ रही है? इस प्रकार अप्रमादरूप संवर की निष्ठा से व्यक्ति के जीवन में कषाय और नोकषाय से होने वाली तथा मिथ्यादृष्टि, प्रमत्तता और अविरति से होने वाली समस्त समस्याएँ शान्त व समाहित होते देर न लगेगी। कषायरूप आम्रव से होने वाली समस्याओं को रोकने और शान्त करने के लिए जब अकषाय-संवर उदित होगा तो स्वतः समाधान होने लगेगा। शक्ति का जागरण होने लगेगा। जब अप्रमाद अनुप्रेक्षा बढ़ेगी, तब जागरूकता भी बढ़ेगी। ऐसी स्थिति में अकषाय-संवर स्वतः
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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