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________________ ॐ समस्या के स्रोत : आसव, समाधान के स्रोत : संवर ® ६७ 8 जानता है, वह एक आत्मा को सम्यक् जान जाता है।" आत्मज्ञ ही वास्तव में संसार में उत्पन्न होने वाली समस्याओं को जान-देख पाता है और उनका हल भी आसानी से कर पाता है। ___ मूल पाँच समस्याएँ आम्रव की पाँच पुत्रियाँ हैं अतः मूल समस्या यह है कि आज व्यक्ति अपने आप (आत्मा) को सम्यक् जान-देख नहीं पा रहा है। उसके पीछे पूर्वोक्त पाँच कारण (आसव) या पाँच समस्याएँ काम कर रही हैं, जो आस्रव की पाँच पुत्रियाँ हैं-(१) मिथ्यादृष्टि, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय, और (५) योगत्रय की चंचलता। जैनकर्मविज्ञान ने बताया है कि ये पंचास्रवरूप मूल समस्याएँ ही जन्म-जरा-मरणरोगादिरूप दुःख हैं, दुःख की कारण हैं, दुःखों के विषचक्र को उत्तरोत्तर बढ़ाने वाली हैं। दुःखों के इस विषचक्र को रोका या तोड़ा नहीं जाएगा, तब तक न तो पारिवारिक समस्या हल होगी, न सामाजिक या राष्ट्रीय समस्याएँ ही हल होंगी और न आर्थिक, धर्म-सम्प्रदायिक या शारीरिक-मानसिक समस्याओं का निराकरण हो सकेगा। ___क्या गरीबी, अभाव आदि के कारण ये समस्याएँ खड़ी होती हैं ? कतिपय राजनैतिक मानस वाले लोगों का कहना है कि गरीबी, अशिक्षा, अमाव-पीड़ा एवं सामाजिक विषमता के कारण ही ये सब समस्याएँ खड़ी होती हैं; परन्त गहराई से सोचा जाये तो यह कथन एकान्तिक है, एकांगी है, वास्तविक नहीं है। एक व्यक्ति करोड़पति है या अरबपति है, फिर भी वह अनैतिक धन्धे करता है, स्मगलिंग करता है, माल में या खाद्य पदार्थ में मिलावट करता है, बेईमानी करता है, संस्थाओं का या समाज के अमुक व्यक्तियों का धन हड़प जाता है, गरीबों का शोषण करता है, कर-चोरी, चुंगी-चोरी, आय-कर, सम्पत्ति-कर की चोरी करता है, दो नम्बर का धन्धा करता है, कई लोग तो चोरी-डकैती का धन्धा स्वयं करते-कराते हैं; क्या ये सब बुराइयाँ गरीबी, निर्धनता या अभाव-पीड़ा के कारण हैं ? क्या ये लोग अभाव से पीड़ित होकर या रोजी, रोटी के अभाव में इन सब बुराइयों को अपनाते हैं ? उत्तर होगा, नहीं। आज प्रायः धनिक एवं सम्पन्न व्यक्ति जितने अनैतिक और तुच्छ-स्वार्थी मिलते हैं, उतने गरीब आदमी बहुधा अनैतिक और तुच्छ-स्वार्थी नहीं मिलते। इसलिए मूल समस्या अभाव की, निर्धनता की या अन्य पीड़ा की नहीं है, किन्तु मूल समस्या है-लोभ की, अहंकार की, ईर्णा और क्रोध की, कामवासना की और विभिन्न प्रकार के भय की। १. जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ। -आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ३, उ. ४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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