SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४ ६६ कर्मविज्ञान : भाग ६ समस्याएँ हैं, जात-पाँत, छुआछूत आदि समस्याएँ हैं, क्या ये इन पंचविध आस्रवों की देन हैं ? अथवा ये मुख्य समस्याएँ नहीं हैं ? वास्तव में देखा जाए तो ये सारी समस्याएँ गौण हैं, मूल समस्याएँ नहीं हैं। ये समस्याएँ पत्तों की समस्याएँ हैं, जड़ की समस्याएँ नहीं हैं। वृक्ष का मूल सुरक्षित होता है तो पत्ते झड़ जाने के बावजूद भी पुनः पतझड़ के बाद वसन्त ऋतु आती है तो सारे पत्ते वापस आ जाते हैं। पत्तों की समस्या हल हो जाती है, वृक्ष हरा-भरा हो जाता है । ये मूल समस्याएँ नहीं हैं । मूल समस्या क्या है ? उसको कैसे पहचानें ? मूल समस्या यह है कि आज व्यक्ति अपने आप को जान देख नहीं पाता है। अपने आप (आत्मा) को जब व्यक्ति सम्यक्रूप से जान-देख नहीं पाता, तभी ये सारी समस्याएँ पैदा होती हैं। अपने आप को नहीं जानने-देखने का तात्पर्य है - मैं कौन हूँ? दूसरा कौन है ? मैं मनुष्य-जीवन में क्यों और कहाँ से आया ? पूर्व-जन्म में मैं कौन था ? मेरा शुद्ध वास्तविक स्वरूप क्या है ? संसार के सजीव एवं निर्जीव पदार्थों के साथ मेरा क्या सम्बन्ध है ? इनसे तथा मेरे शरीरादि से जो मेरा सम्बन्ध अभी है, वह त्याज्य है अथवा उपादेय है ? मेरी यह स्थिति कैसे हुई ? इसका अन्त कैसे करूँ? यह और इस प्रकार का आत्मा से सम्बन्धित चिन्तन ही वस्तुतः आत्मा जाना देखना है। व्यक्ति जब तक इस प्रकार से स्वयं को नहीं जानता- देखता या जानने-देखने का प्रयत्न नहीं करता, तब तक समस्याओं का अन्त आना असम्भव नहीं तो कठिनतर अवश्य है । " अपनी आत्मा को अपने आप से देखो - परखो भगवान महावीर ने यह नहीं कहा कि तुम्हारी समस्याएँ कोई दूसरी शक्ति, देवी- देव या ईश्वर आदि हल कर देंगे। उन्होंने कहा- तुम अपने आत्म-दर्पण में ही अपनी वृत्ति-प्रवृत्तियों का अवलोकन करो, आत्म-दर्पण में अवलोकन करने से तुम्हें अपना व्यक्तित्व स्पष्टतः प्रतिबिम्बित नजर आएगा। इसलिए श्रमण शिरोमणि भगवान महावीर ने कहा - " अपनी आत्मा को अपनी आत्मा से (आत्म-दर्पण में) देखो - सम्प्रेक्षण करो, भलीभाँति निरीक्षण-परीक्षण करो । २ जो एक को जानता है, वह सर्व को जान लेता है भगवान महावीर ने यह भी कहा कि "जो अकेले आत्मा को जानता है, वह संसार के समस्त जड़-चेतन पदार्थों को जान पाता है । अथवा जो समस्त पदार्थों को १. 'अपने घर में' से भावांश ग्रहण २. (क) संपिक्खए अप्पगमप्पए । (ख) अप्पणा सच्चमेसेज्जा । - दंशवैकालिकसूत्र, चूलिका २, गा. १२ - उत्तराध्ययनसूत्र, अ. ६, गा. २
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy