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समस्या के स्रोत : आस्रव, समाधान के स्रोत : संवर ६३
में रहते हैं कि यह-प्रेम करता है, परन्तु वह मोहजाल में फँसाता है, धन, मकान, वाहन आदि विविध वस्तुओं का जाल बिछाकर अहंता- ममता बढ़ाता है, किन्तु वह मिथ्यात्वमोह के नशे में उन्हें सुखकारक समझकर स्वयं फँसता है और दूसरों को फँसाता है। अर्थात् सुखाभास को सुख समझकर अन्त में, उसी मिथ्यात्व जाल में, उन सजीव-निर्जीव वस्तुओं के नष्ट होने, वियोग होने या चुराये जाने पर आर्त्तध्यान करके दुःख पाता है, स्वयं जरा, मृत्यु एवं पुनः पुनः जन्म आदि के दुःखों में डूबा रहता है। मिथ्यात्व का परिवार बुहत बड़ा है। यह हम पहले स्पष्ट कर चुके हैं। संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय, भ्रान्ति, मूढ़ता, पूर्वाग्रह, हठाग्रह, मिथ्या मान्यता, एकान्त मान्यता, एकांगी विचार, विपरीत दृष्टि' आदि सब इसी मिथ्यादृष्टि के ही नाती-पोते हैं।
द्वितीय समस्याजननी : अविरतिरूप आम्रव
मिथ्यादृष्टि (मिथ्यात्व) के पश्चात् समस्याओं की जननी अविरति (असंयम) है। अविरति के कारण पाँचों इन्द्रियों के विषयसुखों की लालसा जागती है । विविध पदार्थों में वैषयिक सुख मानकर मनुष्य उन्हें अधिकाधिक पाने की इच्छा करता है, प्राप्त होने पर उन पर आसक्ति और ममता - मूर्च्छा रखता है और ऐसी आकांक्षा करता है कि ये वस्तुएँ या इन्द्रिय-विषय सदा-सदा के लिए मेरे पास रहें, मैं सदैव इन्हें भोगता रहूँ। अनुकूल पदार्थों या विषयों का वियोग होने और प्रतिकूल पदार्थों या विषयों का संयोग होने पर मनुष्य में विरति ( त्याग, प्रत्याख्यान, यम, नियम, व्रत, तप आदि संकल्प की वृत्ति) न होने से अत्यन्त दुःखानुभव करता है। अविरति के कारण मनुष्य अपनी इच्छाओं, कामनाओं, वासनाओं, तृष्णाओं, लालसाओं पर संयम, नियंत्रण या विरति नहीं कर पाता । मनोज्ञ पदार्थों को पाने की प्यास, तृष्णा या लालसा इतनी अधिक बढ़ जाती है कि व्यक्ति अपने पर कंट्रोल नहीं कर पाता। इसी से परस्पर संघर्ष, वैमनस्य, वैर-विरोध, फूट, द्वेष, ईर्ष्या, कलह, क्लेश, अहंकार आदि समस्याएँ पैदा होती हैं, जो भयंकर अशुभ आम्रवों का कारण बनती हैं। अविरति के साथ मिथ्यादृष्टि के मिल जाने पर तो मनुष्य अपने आप को भूलकर अधिकाधिक समस्याओं को पैदा करके दुःख पाता रहता है। मिथ्यादृष्टि के साथ अविरति के मिल जाने के कारण अनुकूल विषयों या पदार्थों को पाने के लिए वह हिंसा - अहिंसा का, सत्य-असत्य का, ईमानदारी-बेईमानी का, नीति- अनीति का, काम्य - अकाम्य का और परिग्रह-अपरिग्रह का भान भूल जाता है और एक ही धुन रहती है मनोऽनुकूल पदार्थों को पाने की। उसकी यह पिपासा बुझती ही नहीं । २
१. 'जीवनयात्रा' (मुनि चन्द्रप्रभसागर) से भावांश ग्रहण, पृ. ४-५
२. 'अपने घर में ' ( युवाचार्य महाप्रज्ञ) से भावांश ग्रहण