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® समस्या के स्रोत : आसव, समाधान के स्रोत : संवर ॐ ६१ *
स्वयं के सम्बन्ध में अज्ञानता ही मिथ्यादृष्टि है वास्तव में जब मनुष्य स्वयं को नहीं देख पाता, तब ये और ऐसी सब समस्याएँ पैदा होती हैं। अर्थात् “मैं कौन हूँ? मैं मनुष्य-जीवन में कैसे आया? मेरा वास्तविक स्वरूप क्या है ? संसार के सजीव-निर्जीव पदार्थों के साथ मेरा क्या सम्बन्ध है? मेरी यह स्थिति क्यों और कैसे हुई? इन कर्मोपाधिक सम्बन्धों का अन्त कैसे हो? इत्यादि चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में व्यक्ति अपने आप को नहीं देख पाता, उसका कारण यही मिथ्यादृष्टि है। इसी का नाम अविद्या है।२
___ अविद्या का स्वरूप और मिथ्यादृष्टि से सदृशता 'योगदर्शन' में उसी को अविद्या कहा है। अविद्या का स्वरूप है-जो वस्तु जैसी है, उसे वैसी न समझकर उससे विपरीत समझना। 'योगदर्शन' में अविद्या का विशद स्वरूप बताते हुए कहा गया है-“अनित्य (पदार्थों) में नित्य का ज्ञान होना अथवा अनित्य को नित्य समझना, अपवित्र को पवित्र समझना, दुःख (दुःखरूप) को सुख (सुखरूप) समझना तथा अनात्मा (देह आदि जड़ वस्तुओं) को आत्मा (सचेतन) समझना-जानना अविद्या है।"३ जैन-कर्मविज्ञान में जो मिथ्यात्व का स्वरूप बताया गया है, वही लगभग ‘अविद्या' का स्वरूप है। अविद्या से ही नाना दुःखमूलक समस्याएँ पैदा होती हैं। अविद्या के कारण ही जन्म-जरा-मृत्यु-व्याधियुक्त दुःखमय संसार में बार-बार परिभ्रमण करना पड़ता है। इसीलिए कहा गया हैजितने भी विविध अविद्याग्रस्त पुरुष हैं, वे सब अपने लिए दुःख उत्पन्न करते हैं और अनेक बार इस अनन्त संसार में मूढ़ बनकर जन्म को व्यर्थ नष्ट कर देते हैं।
बहुकर्मलिप्त मूढ़ व्यक्तियों को स्वरूप-बोध अतिदुर्लभ मिथ्यात्व के कारण ही एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रियों को बिलकुल स्वरूप-बोध नहीं होता। पंचेन्द्रिय जीवों में भी असंज्ञी पंचेन्द्रियों को भी स्वरूप का बोध नहीं हो पाता। संज्ञी पंचेन्द्रिय में भी सभी देवों, नारकों, मनुष्यों और तिर्यंचों को यह आत्म-बोध नहीं होता है। किन्हीं विरले ही भाग्यशाली पंचेन्द्रिय जीवों को स्वरूप-बोध होता है। १. तुलना करें(क) हुं कोण छु. क्याथी थयो. शुं स्वरूप छे मारूं खरूं ? ___ कोना सम्बन्धे वलगणा छे. राखू के ए परिहरूं ? (ख) के अहं आसी? के वा इओ-चुआ. इह पेच्चा भविम्सामि? इहमेगेसिं णो सण्णा - भवइ ।
-आचारांगसूत्र १/१/१ २. तस्य हेतुरविद्या।
-पातंजल योगदर्शन, पाद २, सू २४ . ३. अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्य-शुचि-सुखात्म-ख्यातिरविद्या।
-वही २/५