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® ६० * कर्मविज्ञान : भाग ६ *
लोभ, क्रोध आदि कषायों में वृद्धि की कारण बन जाती हैं, उन्हें धर्म (कर्मक्षयरूप) के कारण समझता है। मिथ्यात्व के कारण ही मान्यताओं में टकराहट, संघर्ष, परमत-असहिष्णुता, वैर-विरोध अन्य धर्म-सम्प्रदायों के प्रति द्वेष, शत्रुता आदि समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। मिथ्यात्व के कारण ही सिर्फ आडम्बर, प्रपंच, प्रदर्शन, वाचालता, कोरी भाषण छटा आदि के कारण सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र न होने पर भी उक्त असाधुता के लक्षण वाले को साधु और साधुता के लक्षण वाले तथा सरल स्वभावी, समभावी, क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दशविध श्रमणधर्म से युक्त साधक को असाधु समझा जाता है। अष्टविध कर्मों से लिप्त को मुक्त और अलिप्त को अमुक्त समझा जाता है मिथ्यात्व के नशे के कारण ही। मिथ्यात्व के कारण समस्याएँ समझ में ही नहीं आती
मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन मोहनीय कर्म की प्रबल शक्ति है, जो मनुष्य को मूढ़ बना देती है, उसके ज्ञान, दर्शन, शक्ति, आनन्द आदि अन्य गुणों को आवृत, कुण्ठित एवं विकृत कर देती है। यह मिथ्यात्व ही है, जिसके कारण तीनों लोक के समस्त पदार्थों को, श्रेष्ठ वस्तुओं को अपना बना लेने, उन पर अपना आधिपत्य जमाने की धुन लगती है। उसकी तृष्णा अनन्त रूपों में फैल जाती है, उसकी प्यास कभी बुझती नहीं। मिथ्यात्व के प्रभाव से होने वाली अगणित अनिष्टकारी समस्याओं को जानते हुए भी वह नहीं जान पाता, देखते हुए भी नहीं देख पाता, सुनते हुए भी अनसुना कर देता है। जाति, कुल, बल, लाभ, तप, श्रुत (ज्ञान), ऐश्वर्य, सत्ता, धन आदि मद मिथ्यात्व के ही जनक हैं, जिनके कारण मनुष्य मदान्ध हो जाता है, सम्यक्त्व को तिलांजलि दे बैठता है। कितनी भयंकर समस्याएँ पैदा हो जाती हैं ? यह सब मिथ्यात्व के नशे का ही प्रभाव है
यह मिथ्यात्व-मद्य के नशे का ही प्रभाव है कि मनुष्य लोभान्ध, क्रोधान्ध, मायान्ध, मदान्ध एवं स्वार्थान्ध होकर अपने आत्म-स्वरूप को बिलकुल भूल जाता है। मिथ्यात्व के कारण ही उसे सुदेव, सुगुरु, सद्धर्म तथा सत्-शास्त्रों के प्रति श्रद्धा, रुचि, प्रतीति, स्पर्शना और पालना आदि होती ही नहीं। अपने जीवन में तप, संयम, अनासक्ति, सद्धर्माचरण आदि कर्मक्षयकारिणी बातें उसे सुहाती नहीं, इसके पीछे मिथ्यात्व-मद्य का नशा ही कारण है। तीव्रतम कषायों का भड़कना या अशुद्ध लेश्याओं का उत्तेजित होना आदि सब मिथ्यात्व-विषवृक्ष के ही फल हैं। गोशालक जब मिथ्यात्व के नशे में था, तब उसे कहाँ हिंसा-अहिंसा का, सत्य-असत्य का, सरलता और वक्रता का, सुश्रद्धा और कुश्रद्धा का, आशातना-अनाशातना का तथा विनय-अविनय का भान था ?