________________
५
समस्या के स्रोत : आसव, समाधान के स्रोत : संवर
समस्याओं का जाल क्यों और कौन बुनता है ?
आज मानव-जाति के समक्ष अगणित समस्याएँ हैं। परिवार, जाति, समाज, नगर, गाँव, राष्ट्र, प्रान्त, धर्म-सम्प्रदाय, अर्थ, संस्कृति, नीति आदि जीवन के सभी क्षेत्रों में, मानव समाज के सभी घटकों में हजारों समस्याएँ हैं । इन सभी क्षेत्रों में कहीं विचारभेद है, कहीं मान्यताभेद है, कहीं स्वार्थ की टक्कर है, कहीं अहंकार का उफान है, कहीं क्रोध की ज्वाला है, कहीं पूर्वाग्रह एवं हठाग्रह की पकड़ है, कहीं धर्म और संस्कृति तथा नैतिकता और आध्यात्मिकता के विपरीत कदम उठ रहे हैं, कहीं मानवता के बदले दानवता पनप रही है। कहीं राष्ट्रान्धता, जात्यन्धता, धर्मान्धता आदि मूढ़ताएँ सिर उठा रही हैं। कहीं आतंकवाद, उग्रवाद, अलगाववाद, भाषावाद और प्रान्तवाद आदि के कारण संहारलीला चल रही है। कहीं इसके अतिरिक्त निरर्थक हिंसा, अनर्थदण्ड, उच्छृंखलता, बेईमानी, भ्रष्टाचार, अनाचार, बलात्कार, झूठ - फरेब, धोखाधड़ी, ठगी, जालसाजी, अराजकता, गैर-वफादारी आदि पनप रही हैं। प्रश्न होता है ये सब समस्याएँ मनुष्य-जाति में दुःख, दौर्भाग्य विपत्ति, संकट, पीड़ा, आधि, व्याधि, उपाधि, अशान्ति आदि नाना अनिष्टों को पैदा करती हैं, फिर क्यों मानव अपनी ही जाति को, साथ ही अन्य . प्राणिवर्ग को दुःख आदि देने के लिए उद्यत होता है ? क्यों जान-बूझकर इतनी अगणित समस्याएँ पैदा करता है ? क्यों इन समस्याओं को पैदा करके वह स्वयं अपनी सुख-शान्ति और समाधि भंग करता है ? आखिर उसे मिलता क्या है, ऐसे समस्याजनित अनिष्टरूपी भूतों को स्वयं बुलाने से ? इन सबका उत्तर यही होगाचाहता तो कोई नहीं है स्वयं संकटों को बुलाना, परन्तु पता नहीं इन समस्याओं का जाल कैसे बुन लेता है वह ? उसे यह भी मालूम नहीं है अथवा वह गहराई में उतरकर विचार भी करता नहीं है कि इन सब समस्याओं का मूल स्रोत क्या है ? क्यों वह इन समस्याओं को खड़ी करने को उद्यत हो जाता है और फिर बरबस इनके कटु फल भोगता है ?