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ॐ ५६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ 8
उसको अपनी पीड़ा या यातना शूली के बदले शूल-सी लगेगी। वह पीड़ा भाले की नोंक के बदले सुई की नोंक-सी प्रतीत होगी। जैसे-अग्निशर्मा पर पहले-पहले इतने भयंकर कष्ट पर कष्ट आए, मगर उसने वे प्रसन्नतापूर्वक सहे। मुख पर द्वेष-रोष की एक भी रेखा नहीं उभरने दी। कर्मसत्ता निमित्त पर प्रहार करने को सहन नहीं करती __परन्तु बाद में उसने निमित्त पर प्रहार करने का दृढ़-संकल्प (नियाणा) किया, तव कर्मसत्ता ने उसे पहले से अधिक सजा दे दी-उसके अपराध को देखते हुए। कर्मसत्ता ने इतने-इतने घोर तप किये जाने पर भी तथा अन्त में आमरण अनशन स्वीकार किये जाने पर भी निमित्त पर प्रहार करने के दुःसंकल्प के कारण उसकी सजा माफ नहीं की, बल्कि घोर अपराध के कारण सजा भीषण और दीर्घकाल की कर दी। अतः कष्ट-सहन करने की कैसी भी हद आ गई हो, अगर कोई संवर-निर्जरा-साधक या सामान्य व्यक्ति भी निमित्त पर प्रहार करने को उतारू हो जाता है, कानून की बागडोर अपने हाथ में ले लेता है तो कर्मसत्ता पहले के किये गए कष्ट-सहिष्णुता के पुण्य के बदले नये प्रहार करने के घोर संकल्परूप अपराध के कारण और अधिक दण्ड दे देती है। वह उसे माफ नहीं करती। निमित्त को दण्ड देने का विचार तक न आने दो __ अतः संवर एवं निर्जरा में सफलता चाहने वाला साधक अपने पर किसी व्यक्ति-विशेष की ओर से दी जाने वाली पीड़ा से ऊबकर उसे स्वयं दण्डित करने की भावना मन में उठने ही न दे। कदाचित् दुर्बलतावश उठने लगे तो तुरन्त सँभलकर अपने मानसपटल पर अग्निशर्मा की घटना व स्कन्दक आचार्य की घटना को लाएँ। ऐसा करने से संवर और निर्जरा की उसकी साधना बरकरार रह सकेगी, मानसपटल पर आया हुआ रोष-द्वेष का तूफान तुरन्त शान्त हो जायेगा। ____ आशय यह है कि अमुक पूर्वबद्ध कर्मों के उदय में आ जाने पर श्वानवृत्ति की तरह निमित्त के प्रति रोष, द्वेष या प्रहार न करके सिंहवृत्ति धारण कर उक्त कष्ट को अपने ही द्वारा पूर्वकृत कर्मापराध का फल मानकर शान्तभाव से सहन कर ले, तभी वह उक्त कर्म के आगमन का निरोध (संवर) और पूर्वकृत कर्म का क्षय (निर्जरा) करने में सफल हो सकता है।