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________________ * संवर और निर्जरा : एक विश्लेषण * ५५ 8 मासक्षपण के पारणे के दिन उसके यहाँ पहुँचा, परन्तु उस दिन शत्रुसैन्य द्वारा राज्य पर अकस्मात् आक्रमण के कारण राजदरबार में सभासदों के साथ मंत्रणा करने में राजा गुणसेन अत्यन्त व्यस्त था। बाहर भयंकर कोलाहल हो रहा था। तापस अग्निशर्मा की ओर किसी का ध्यान नहीं था, न ही उसकी ओर देखने को कोई. तैयार था। अतः तीसरी बार भी पारणा नहीं हो सका। अग्निशर्मा वापस लौटा। परन्तु पहले दोनों बार का शान्त, दान्त, क्षमाशील अग्निशर्मा अब बदल चुका था। उसके मन में गुणसेन के प्रति भयंकर क्रोध की ज्वाला उमड़ पड़ी, प्रतिशोध की दुर्भावना उसके मानस में उछलने लगी। आश्रम के कुलपति तापस गुरु के मना करने पर भी उसने गुणसेन को अपना अकारण शत्रु मानकर निदान (कठोर संकल्प) कर लिया कि मेरी तपश्चर्या का कुछ भी फल हो तो मैं जन्म-जन्म में गुणसेन का वैरी बनकर इसका वध करूँ। अग्निशर्मा तापस की भयंकर भूल ने संवर-निर्जरा का अवसर खो दिया यहीं आकर अग्निशर्मा तापस भयंकर भूल कर बैठा। वह कर्मसत्ता को चुनौती दे बैठा। यद्यपि कर्मसत्ता ने ही उसके पूर्वकृत कर्मोदयवश पारणा न होने देने के अन्तराय के रूप में सजा दी थी। उसमें गुणसेन को निमित्त बनाया कि वह मासक्षपण के पारणे के दिन आहार न दे सके, गुणसेन तो निमित्त था, कर्मसत्ता के द्वारा दिये गए दण्ड (अन्तराय कर्म) को भुगवाने के लिए माध्यम। मगर अग्निशर्मा निमित्त पर कर्म के द्वारा दिये गए कर्तव्य-भार को अदा करने वाले पर प्रतिकार करने और उस पर कहर बरसाने को तुल पड़ा। इसी कारण अग्निशर्मा को कर्मसत्ता ने न्याय और कानून को हाथ में लेने की मूर्खता पर अनन्तकाल तक संसार में-दुर्गतियों में भटकते रहने का दण्ड दे दिया। · संवर और निर्जरा के साधक ने अन्त तक समभाव से कष्ट सहे ____ अतः संवर और निर्जरा के साधक को जिस समय उस पर एक के बाद एक दुःख और संकट के बादल उमड़-घुमड़कर आ रहे हों, उस समय अग्निशर्मा की पीड़ा का स्मरण अपने मस्तिष्कपट पर बार-बार अंकित करना चाहिए। जैसे अग्निशर्मा निदान करने से पूर्व गुणसेन की ओर से जितनी और जो-जो बार-बार अपार पीड़ा मिली, तब भी शान्त रहा। यह सत्य है कि पीड़ा की पराकाष्ठा थी, परन्तु तापस अग्निशर्मा की भी उस घोर कष्ट को सहने की पराकाष्ठा थी। अतः संवर-निर्जरा-साधक को भी चाहिए कि स्वयं पर किसी अन्य व्यक्ति की ओर से सकारण या अकारण पीड़ा मिले, जो भी, जैसी भी, जितनी भी; उस समय अग्निशर्मा की पीड़ा और उसकी सहिष्णुता को स्मृतिपट पर लाये। ऐसा करने से
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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