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________________ * संवर और निर्जरा : एक विश्लेषण * ५३ 8 उस दुष्कृत्य या दुश्चिन्तन को निष्फल कर देना चाहिए। 'आवश्यकसूत्र' में इस प्रकार के दुर्विचारों का तुरन्त प्रतिक्रमण करने उक्त पापनिवारण द्वारा आत्म-शुद्धि करने का विधान है। वह इस प्रकार है___ "भगवन ! मैं उस अतिचार (दोष) का प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ, जो मैंने मानसिक, वाचिक, कायिक अतिचार (दोष) किये हों। कैसे दोष? शास्त्र-विरुद्ध, मार्ग-विरुद्ध, आचार-मर्यादा-विरुद्ध, न करने योग्य, दुर्व्यानरूप, दुश्चिन्तनरूप, दुश्चेष्टारूप, अनाचरणीय, अनिच्छनीय दोष, ज्ञान में, दर्शन में, चारित्र में, श्रुतज्ञान में सामायिक (समभाव की) साधना में, जो भी खण्डना, विराधना या स्खलना की, उसका पाप मेरे लिए मिथ्या (निष्फल) हो।"१ ___ सवर-निर्जरा-साधक को याद रखना चाहिए कि अगर कोई भी यातना असह्य हो पड़े और उसके मुख से भगवान का नाम निकले बिना केवल हाय-हाय, मर गया रे!, अमुक दुष्ट ने मार डाला रे ! इस प्रकार की वृत्ति-प्रवृत्ति न हो, अधिक असह्य दुःख आ पड़े तो उस समय देव, भगवान या निमित्त को न कोसकर अपनी आत्म-निन्दा (पश्चात्ताप) करते हुए यह सोचना चाहिए, अपने आत्मापराध वृक्ष के ही ये फल हैं, इन्हें सहर्ष भोगने पर ही कर्मक्षय होगा, सुख-शान्ति होगी। . हिंसक प्रतिकार का विचार आए तो अग्निशर्मा और गुणसेन के चरित्र को याद करो जब कभी पूर्व संस्कारवश ऐसा विचार आने लगे कि यह दुष्ट व्यक्ति या प्राणी हमें निर्बल जानकर बार-बार सताता है। हम कुछ भी प्रतिकार नहीं कर रहे हैं, इसलिए वह निर्भय और ढीठ बनकर अधिकाधिक उत्पीड़ित कर रहा है। अतः अब तो उस पर जोरदार प्रहार करके उसे शान्त करना ही पड़ेगा, ताकि वह हमें परेशान करने से बाज आए। ऐसी दुश्चिन्तना के समय अग्निशर्मा को याद करें। वह जब गुणसेन के जीव पर प्रत्येक भव में किसी न किसी रूप में मरणान्तक उपसर्ग (कष्ट) देता रहा, किन्तु गुणसेन का जीव प्रत्येक भव में अधिकाधिक जाग्रत होकर उस दुःख या कष्ट को समभावपूर्वक उस (निमित्त) पर द्वेष-रोष किये बिना सहता रहा। फलतः अग्निशर्मा के जीव द्वारा प्रत्येक भव में रोष, द्वेष, दुर्ध्यान एवं दुश्चिन्तन मूलक घोर उपसर्ग (कष्ट) गुणसेन के जीव को बेधड़क देने के कारण अग्निशर्मा के घोर पापकर्म का बन्ध होता गया, जबकि गुणसेन के जीव १. इच्छामि ठामि पडिक्कमिउं जो मे... अइयारो कओ काइओ वाइओ माणसिओ, उस्सुत्तो, उमग्गो, अकप्पो, अकरणिज्जो, दुज्झाओ दुव्विचिंतिओ दुचिट्ठिओ, अणायारो अणिच्छियत्थे नाणे तह दंसणे चरित्ते सुए सामाइए जं विराहियं तस्स मिच्छामि दुक्कडं। -आवश्यकसूत्र
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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