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कर्मविज्ञान : भाग ६ 8
रहा हो, उस समय उसे पूर्वकृत पापकर्म के उदय से जो भी सजा मिल रही हो उसे किसी प्रकार का प्रतिकार या विरोध किये बिना सहन कर लेनी चाहिए। समभावपूर्वक शान्ति से सहन करने से ही कर्म के संवर और निर्जरा की साधना होती है।
इस विषय में पारमार्थिक दृष्टि से तो शंका को कोई अवकाश नहीं है, किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से एक शंका प्रायः अधिकांश सांसारिक जनों को होती है कि वर्तमान में अल्पज्ञ को प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता कि कर्मसत्ता द्वारा इतनी भयंकर सजा देने का निमित्त को आदेश दिया गया है। वर्तमान में हमारे समक्ष. प्रत्यक्ष तो सजा देने वाला वह निमित्त ही होता है। क्या उस (निमित्त) के द्वारा दी गई जो भी यातना हो, उसे सहर्ष स्वीकार कर लेना या समभावपूर्वक सहन कर लेना चाहिए? इसका समाधान यह है कि जो सम्यग्दृष्टि या तत्त्वज्ञ होता है, उसके मन में कर्मसत्ता द्वारा दिये जाने वाले दण्डादेश पर तथा प्रत्यक्ष दण्ड (कर्मफल) भुगवाने वाले निमित्त पर कोई शंका नहीं होती। इसीलिए यदि वह समभावपूर्वक शान्ति से सहर्ष उस दण्ड को सहन कर लेता है, तभी वह संवर या निर्जरा का भागी होता है अथवा पुण्य का. भागी होता है। परन्तु कतिपय तत्त्वज्ञ दार्शनिक ऐसी शंका प्रस्तुत करते हैं कि किस हद तक उक्त यातना को सहन करना? उसकी कोई सीमा निर्धारित नहीं है क्या? जितना दुःख आए, उतना सब-कुछ सहन करो, यह कहा जाता है, किन्तु हाय ! कितना सहन करें? सहन करने की भी कोई हद होती है ! अगर हमने उस असह्य वेदना (सजा) का प्रतिकार नहीं किया तो वह अधिकाधिक यातना देता चला जायेगा
और हमें नेस्तनाबूद कर देगा। अब तक तो हमने बिना चूँचपड़ किये उसे सहन किया, Let it go कर दिया। पर अब तो हमसे सहन नहीं होता। न, न बाबा ! अब हद हो गई है सहने की ! अगर हम कुछ भी प्रतिकार नहीं करते हैं तो यह हमारे सिर पर चढ़ता जायेगा। यह समझता है-हम तो मिट्टी के माधो हैं, हममें कुछ भी दम नहीं है या प्रतिकार करने की हिम्मत नहीं है। मगर ऐसा कतई नहीं चलेगा। अब तो उस पर ऐसा प्रहार करेंगे कि उसे छठी का दूध याद आ जाये। तभी उसकी अक्ल ठिकाने आयेगी। ऐसा निरर्थक शंकाकुल विचार नहीं करना चाहिए। न ही ऐसी कोई प्रतिकारवृत्ति-प्रवृत्ति करनी चाहिए। प्रतिक्रिया-विरति के लिए इस प्रकार शीघ्र प्रतिक्रमण करो।
संवर-निर्जरा-साधना के लिए ऐसी ही प्रतिक्रिया-विरति आवश्यक है। उसे ऐसा या इस प्रकार का कोई भी दुर्विचार आए तो तुरन्त उसका प्रतिक्रमण करके १. 'हंसा ! तू झील मैत्री-सरोवर में' से भावांश ग्रहण