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________________ ४५० ४ कर्मविज्ञान : भाग ६ या अपमानित करूँगा”, यों कहकर वह कर्मापराधी यदि सजा भुगवाने वाले निमित्त का सामना करता है तो कर्मसत्ता की अदालत उसकी इस बेअदबी और धृष्टता से रुष्ट होकर उसके दण्ड की अवधि (स्थिति) और कठोरता ( अनुभागवन्ध) को बढ़ा देती है। तत्त्वज्ञ सम्यग्दृष्टि द्वारा समभाव से दण्ड भोगने पर सजा कम या माफ भी हो जाती है इसके विपरीत यदि कोई समझदार अथवा आस्रव संवर तथा बन्ध-निर्जरा के तत्त्वज्ञान का जानकार सम्यग्दृष्टि कर्मापराधी ( कैदी) को कर्मरूपी न्यायालय द्वारा निर्धारित सजा किसी निमित्तभूत जीव द्वारा दी जा रही हो, उस समय सजा देने वाले (जेलर) का सामना ( प्रतिकार) किये बिना यदि वह शान्ति से भोग लेता है, उस कष्ट को समभावपूर्वक सह लेता है, तो उसे अच्छा और समझदार (सम्यग्दृष्टि एवं तत्त्वज्ञ) कर्मापराधी माना जाता है। उसके उस प्रशंसनीय व्यवहार को देखकर कर्मरूपी न्यायालय कभी-कभी उसकी सजा की अवधि और मात्रा घटा भी देती है। उसके अनेक अपराधों के लिये नियत की गई कितनी ही सजाएँ उसके बिना भोगे ही कर्म-न्यायालय द्वारा रद्द कर दी जाती हैं, उसे उस सजा से बरी कर दिया जाता है। कर्मसत्ता की कोर्ट के आदेशानुसार जो जीव अपने लिये निर्धारित दण्ड को शान्ति और धैर्य के साथ समभावपूर्वक भोग लेता है, उसके उस व्यवहार को प्रशंसनीय मानकर उसके अन्य अपराधों की सजा वह माफ भी कर देती है । कर्म-न्यायालय उससे सन्तुष्ट होकर उस जीव के दूसरे अनेक कर्मों को भोगे बिना ही उसकी सजा रद्द (cut-off) कर देती है । ' कर्म का दण्ड भुगताने वाले निमित्त को वह शत्रु नहीं मानता निष्कर्ष यह है कि जैसे समझदार और विवेकवान कैदी कोर्ट की सजा को बिना कुछ भी ननु च कि भोग लेता है, वैसे ही जो पूर्वबद्ध कर्म का अपराधी उस कर्म द्वारा मिलने वाले दण्ड को सम्यग्दर्शनपूर्वक तत्त्वज्ञान के बल से हँसी-खुशी से भोग लेता है, किसी प्रकार का सामना या प्रतिकार कर्मसत्ता के द्वारा प्रदत्त दण्ड को भुगवाने वाले निमित्त से नहीं करता । वह उक्त निमित्त को अपना शत्रु नहीं मानता, वह उसे कर्मसत्ता के आदेश का पालक मानता है। इस प्रकार का साधक सहज में ही संवर और निर्जरा का लाभ प्राप्त कर लेता है। उसके मन में भी शान्ति, सुख, त्याग एवं सहनशीलता का आनन्द होता है । १. 'हंसा ! तू झील मैत्री-सरोवर में' से भावांश ग्रहण, पृ. १०२
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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